"हायर और फायर" का अधिकार और शिक्षा की गुणवत्ता
पिछले हफ्ते ऐन्युअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) 2022 जारी की गई है। सरकारी स्कूलों में नामांकन की प्रतिशतता में हुई थोड़ी बढ़ोतरी की बात छोड़ दें तो इस बार भी परिस्थितियों में अधिक बदलाव नहीं हुआ है। रिपोर्ट में ध्यान देने वाली सबसे अहम बात सरकारी व गैर सरकारी स्कूलों में होने वाले नामांकन और विभिन्न कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों के सीखने का परिणाम (लर्निंग आउटकम) ही होती है। हर बार की तरह इस बार भी रिपोर्ट से यह स्पष्ट होता है कि छात्रों के सीखने के परिणाम के मामले में सरकारी स्कूल अब भी निजी स्कूलों से काफी पिछड़े हुए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले तीसरी कक्षा के 83.7 प्रतिशत छात्र दूसरी कक्षा की किताब पढ़ने में सक्षम नहीं पाए गए, जबकि निजी स्कूलों में पढ़ने वाले 67 प्रतिशत छात्र ऐसा करने में सक्षम नहीं रहें। पांचवी कक्षा के 61.5 प्रतिशत छात्र दूसरी कक्षा के स्तर का पाठ पढ़ने में अक्षम हैं, जबकि इसी कक्षा में निजी स्कूलों में पढ़ने वाले 43.2 प्रतिशत छात्र दूसरी कक्षा के स्तर का पाठ पढ़ने में सक्षम नहीं है। इसी प्रकार, सरकारी स्कूलों के आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले 66.2 प्रतिशत ही दूसरी कक्षा के स्तर का पाठ पढ़ने में सक्षम पाए गए जबकि निजी स्कूलों के इनके 80 प्रतिशत समकक्ष ऐसा करने में सक्षम रहे।
असर 2022 के मुताबिक सरकारी और निजी स्कूलों के छात्रों के गणित के प्रश्नों का हल ढूंढने की योग्यता में भी महत्वपूर्ण अंतर देखने को मिला है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले तीसरी कक्षा के 80 प्रतिशत छात्र साधारण घटाव करने में समर्थ नहीं रहे वहीं निजी स्कूलों के 57 प्रतिशत छात्र ऐसा नहीं कर सके। सरकारी स्कूलों में कक्षा 5 के 78.4 प्रतिशत छात्र साधारण भाग करने में सक्षम नहीं पाए गए जबकि निजी स्कूलों के 61 प्रतिशत छात्र भाग नहीं कर सकते थे। ऐसा ही आठवीं के छात्रों के साथ भी पाया गया। सर्वे के दौरान सरकारी स्कूलों के 41.8 प्रतिशत छात्र ही एक अंक का साधारण भाग करने में सक्षम पाए गए जबकि निजी स्कूलों के 53.8 प्रतिशत छात्र ऐसा करने में समर्थ रहे।
उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर निजी और सरकारी स्कूलों के छात्रों के सीखने के परिणाम में फर्क को आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन ऐसा क्यों है? वह भी तब जब सरकारी स्कूलों के शिक्षक निजी स्कूलों के शिक्षकों की तुलना में अधिक शिक्षित और अधिक योग्य होते हैं। इसके अतिरिक्त सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की भर्ती भी उच्च मानकों के अनुरूप कई कठिन चरणों को पूरा करने के बाद होती है।
इस प्रश्न का जवाब सरकारी शिक्षा के क्षेत्र के अलग अलग हितधारक (स्टेक होल्डर्स) जैसे कि छात्र, अभिभावक, अध्यापक और शिक्षा विभाग के अधिकारी अलग अलग देंगे। छात्रों का जवाब होगा कि शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं या कक्षा में पाठ अच्छे समझा नहीं पाते हैं। अभिभावक, छात्र और शिक्षक दोनों की लापरवाही गिनाएंगे, वहीं अध्यापकों के पास शिक्षण कार्य के अलावा मिड डे मील की व्यवस्था, जनगणना कार्य, चुनावी ड्यूटी सहित तमाम अन्य जिम्मेदारियों में उन्हें संलग्न किये जाने का हवाला देंगे। शिक्षा विभाग के अधिकारी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश छात्रों की कमजोर आर्थिक और उनके अभिभावकों की कमजोर शैक्षणिक पृष्ठभूमि का हवाला देंगे। उनका रटा रटाया जवाब होगा कि उनके स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश छात्रों के अशिक्षित परिजन छात्रों को गृहकार्य करने में सहायता नहीं कर पाते हैं इसलिए उनका प्रदर्शन अपेक्षानुरुप नहीं रहता है। निष्कर्ष यह है कि बुरे शैक्षणिक प्रदर्शन के लिए सभी एक दूसरे को दोषी ठहराते हुए अपना पल्ला झाड़ते दिखेंगे। कुछ शिक्षाविद समस्या के समाधान के लिए कार्यरत शिक्षकों को तमाम प्रकार के प्रशिक्षण हासिल करने की सलाह देते दिखेंगे।
उधर, बड़े निजी स्कूलों को छोड़ दें तो अधिकांश छोटे निजी स्कूलों में शिक्षकों के लिए उच्च डिग्रीधारी और प्रशिक्षित होना अनिवार्य शर्त नहीं होती है। छोटे स्कूलों में जहां अधिकांश शिक्षक सामान्य स्नातक अथवा परास्नातक होते हैं वहीं अधिकांश छात्र भी सरकारी स्कूलों के समान गरीब घरों से ही होते हैं जिनके अभिभावक आमतौर पर अशिक्षित होते हैं। फिर भी सरकारी और निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के सीखने के परिणाम में यह अंतर क्यों होता है?
इसके कई जवाबों में से एक ऐसे स्कूलों के संचालकों के पास शिक्षकों की नियुक्ति और उन्हें कार्यमुक्त करने का अधिकार होना और परिणामस्वरूप शिक्षकों का छात्रों और अभिभावकों के प्रति अधिक जवाबदेह होना है। चूंकि निजी स्कूलों में अभिभावक फीस चुकाते हैं और बच्चों का प्रदर्शन अपेक्षा अनुरूप न होने पर स्कूल बदलने का विकल्प मौजूद होता है इसलिए स्कूल संचालक परिणाम को लेकर अधिक गंभीर होते हैं। इसके अलावा अधिकांश स्कूल संचालक स्वयं प्रिंसिपल और प्रबंधक भी होते हैं इसलिए अन्य कार्यरत शिक्षकों की लेट लतीफी और कक्षा में अनुपस्थिति पर बारीक निगाह होती है। शिक्षक नियमित रूप से कक्षाएं लेते हैं, गृहकार्य देते हैं और उन्हें जांचकर गलती होने की दशा में सुधार कराते हैं। शिक्षकों की वेतन वृद्धि और प्रोन्नति भी उनकी कक्षा के छात्रों के प्रदर्शन के आधार पर होता है। ऐसा तब भी होता है जब स्कूल संचालक शिक्षकों की नियुक्ति अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर और मानकों की अनदेखी करते हुए करते हैं। छात्रों का प्रदर्शन आशानुरूप न होने पर स्कूल संचालक के पास शिक्षक को कार्यमुक्त करने का विकल्प सदैव उपलब्ध रहता है जो उन्हें अधिक जवाबदेह बनाता है।
इसके विपरीत, सरकारी शिक्षकों की जवाबदेही छात्रों-अभिभावकों और स्कूल प्रिंसिपल की बजाए शिक्षा विभाग के अधिकारियों के प्रति अधिक होती है। चूंकि सरकारी स्कूलों के प्रिंसिपलों के पास शिक्षकों की नियुक्ति व उन्हें निकालने का अधिकार नहीं होता है और शिक्षकों की प्रोन्नति और वेतन वृद्धि भी नियत समय पर होती रहती है इसलिए उनके पास अधिक मेहनत करने का प्रोत्साहन (इंसेटिव) तुलनात्मक रूप से कम होता है। इसके अलावा भारी गलती की दशा में भी नौकरी से निकाले जाने की बजाय स्थानांतरण भर से काम चल जाना उन्हें और लापरवाह बनाता है।
यह और बात है कि सरकारें अनैतिक फीस वृद्धि से अभिभावकों को राहत दिलाने, दाखिलों में वंचित वर्गों का समुचित प्रतिनिधित्व कराने, शिक्षकों की भर्ती में नियमों के अनुपालन की अनदेखी होने आदि अनेकानेक कारणों का हवाला देते हुए निजी स्कूलों को नियंत्रित करने और उनके प्रबंधन कार्य में अपनी मनमर्जी करने का लगातार प्रयास करती हैं। इसका ताजा उदाहरण दिल्ली के वित्तपोषित निजी स्कूलों के शिक्षकों की नियुक्ति कार्य का सरकार द्वारा अपने हाथ में लेने की घोषणा करना है। इसके पीछे दलील यह है कि वित्तपोषित स्कूलों के शिक्षकों की नियुक्ति में भारी अनियमितताओं की शिकायतें प्राप्त होती हैं। जबकि ऐसे स्कूलों के प्रबंधन समूह के कुल 21 सदस्यों में से 15 सदस्य किसी न किसी प्रकार सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं।
लब्बोलुआब यह है कि हायर एंड फायर का अधिकार एक ऐसा उपकरण है जो निजी और सरकारी स्कूलों के छात्रों के सीखने के परिणाम में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। सरकार को वित्तपोषित निजी स्कूलों के प्रबंधन में हस्तक्षेप करने की बजाय अपने स्कूलों में जवाबदेही और पारदर्शिता के लिए प्रयास करना चाहिए जिससे वहां गुणवत्ता में और वृद्धि हो और दिल्ली का शिक्षा मॉडल अन्य राज्यों के लिए सही मायने में एक नजीर प्रस्तुत करें।
डिस्क्लेमर:
ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।
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