काल्पनिक नहीं, हकीकत थी गांधी के ग्रामीण गणतंत्र की अवधारणा
गांधी जी ग्राम स्वराज के प्रवल समर्थक थे। उनका मानना था कि स्वतंत्र गांधी भारत की राजनैतिक व्यवस्था की नींव ग्रामीण गणतंत्र पर आधारित होनी चाहिए। हालांकि उनके समकालीन कई अन्य विचारक इस अवधारणा को गांधी जी की प्राचीन भारतीय गांव के प्रति रुमानियत या एक ऐसी काल्पनिक छवि के रूप में देखते थे जिसे उन्होंने भारतीयों में उच्च नैतिक जीवन के प्रति मार्गदर्शन करने के लिए गढ़ा था। भारत के इतिहास को देखने पर ज्ञात होता है कि स्वशासित गांव वास्तव में अस्तित्व में थे। उनका राजनैतिक संगठन अद्वितीय था और उनकी प्रकृति लोकतांत्रिक थी। हां, उनके तौरतरीके अलग-अलग अवश्य थे। इस संदर्भ में उपलब्ध ऐतिहासिक अभिलेखों की कमी के कारण इस वात का ठीकठीक आकलन करना कठिन है कि भारत में ग्राम्य शासन की यह लोकतांत्रिक व्यवस्था कितनी प्रचलित थी। किंतु अनुमान लगाया जा सकता है कि इस महाद्वीप के अधिकांश लोगों को इस प्रणाली की जानकारी अवश्य होगी। भारत में उच्च स्तर की विशेषज्ञता वाली वस्तुओं का उत्पादन होता था और इसके भीतरी और साथ ही साथ वाहरी दुनिया के साथ गहरे व्यापारिक नेटवर्क थे। संचार के इन माध्यमों के द्वारा शासन की इस प्रणाली की सूचना भी अवश्य प्रसारित हुई होगी। जो भी हो, इन ग्रामीण गणतंत्रों का अस्तित्व में होना यह बताता है कि यह गांधी की महज रुमानियत या कल्पनाशीलता नहीं थी।
आज के तमिलनाडु में उत्तरमेरूर शहर के कई मंदिरों में शिलालेख हैं जो गांवों में शासन प्रणाली के कामकाज का वर्णन करते हैं। 900 ईसवीं के वाद से गांधी जी ने आग्रह किया था कि आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी को भंग कर देना चाहिए। अधिकांश लोगों को लगता है कि गांधी जी चाहते थे कि स्वतंत्र भारत की राजनीति में एक पार्टी का प्रभुत्व हो जबकि वे नये राजनीतिक दलों के गठन का सुझाव दे रहे थे। दरअसल, वह दलविहीन राजनैतिक व्यवस्था की बात कर रहे थे। वह कुदावोलाई व्यवस्था जैसी किसी व्यवस्था की ओर इशारा कर रहे थे। क्या अब हमें उनकी सलाह पर ध्यान देना चाहिए यह गांव चोल वंश के अधीन था। शासन की इस प्रणाली को कुदावोलाई प्रणाली कहते हैं। अधिकांश इतिहासकार इसे एक चुनावी प्रणाली के रूप में संदर्भित करते हैं, हालांकि यह चुनाव की एक प्रणाली विशेष से कहीं अधिक विस्तारित है और व्यवस्था का यह शायद सबसे नया पहलू है।
प्रत्येक गांव 30 कुडुम्वु या वार्डों में विभाजित किए गए थे और प्रत्येक वार्ड से चुने गए प्रतिनिधियों को वार्षिक समिति, उद्यान समिति, टैंक समिति जैसी विभिन्न शासन समितियों में विभाजित किया गया था। कुछ कुडुम्वुओं में स्वर्ण समितियां भी थीं। चुनाव लड़ने की अर्हता का सूक्ष्मता से वर्णन किया गया था। इसके अनुसार चुनाव लड़ने के लिये 35 वर्ष से अधिक लेकिन 70 वर्ष से कम की आयु का वही व्यक्ति योग्य था जिसके पास एक वेली (6.17 एकड़) भूमि हो और वह उस भूमि पर और वने एक घर का मालिक भी हो। महिलाओं, वच्चों, ब्राह्मणों या गायों की हत्या करने वाले चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित किए गए थे। इतना ही नहीं, उक्त कार्य के दोषियों, चोरों, शरावियों के करीवी रिश्तेदारों और अन्य मामलों में दंड प्राप्त लोग भी इसके लिए अयोग्य थे।
चुनाव लड़ने के योग्य और प्रतिनिधि वनने में रुचि रखने वालों को अपना नाम ताड़ के पत्ते पर लिख कर उसे 'टिकट' के रूप में मिट्टी के एक वर्तन में डालना होता था। एक युवक वर्तन से टिकट निकालता था और वहां उपस्थित मंदिर के सभी पुजारी उस पर लिखे नाम को पढ़कर सुनाते थे। ड्रा द्वारा चुने गए प्रतिनिधि का सेवाकाल एक वर्ष का होता था और अगले तीन वर्षों तक उसके फिर से चुनाव लड़ने पर रोक थी। अधिकारों के उल्लंघनों की भी एक सूची होती थी जो प्रतिनिधियों को उनके कार्यकाल के दौरान अयोग्य घोषित करती थी।
इस कुदावोलाई प्रणाली का वर्णन ऋग्वेद या अन्य प्राचीन ग्रंथों में नहीं है। इसका मतलब है कि यह प्रणाली समय के साथ विकसित हुई होगी और इसके साथ कई अलग-अलग प्रकार के प्रयोग हुए होंगे।
प्रतिनिधियों का यह यादृच्छिक चयन हमारी वर्तमान प्रतिस्पर्धा-आधारित चुनाव प्रणाली, जिसमें राजनीतिक दल या उम्मीदवार वोट के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, के मुकावले कई मायनों में बेहतर प्रतीत होता है। हमारी वर्तमान व्यवस्था में मौजूद बुराइयों की सूची लंबी है जैसे कि राजनीतिक दलों का वित्त पोषण, चुनाव के दौरान होने वाले खर्च की ऊपरी सीमा का निर्धारण, वोट बैंक की राजनीति जिसके कारण जातियता, धार्मिकता, वर्गीय पहचान और सांप्रदायिकता का प्रसार होता है और अभद्र भाषा का व्यापक उपयोग होता ह जनता की भूमिका का कुछ वर्षों में एक वार होने के कारण प्रक्रिया के प्रति व्याप्त उदासीनता, पेशेवर राजनेताओं का उदय और आम नागरिकों की किसी भी सार्वजनिक पद को धारण करने की असंभवता आदि। इन सभी बुराइयों का एक ही समाधान है: कुदावोलाई प्रणाली! गांधी जी ने आग्रह किया था कि आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी को भंग कर देना चाहिए। अधिकांश लोगों को लगता है कि गांधी जी चाहते थे कि स्वतंत्र भारत की राजनीति में एक पार्टी का प्रभुत्व हो जवकि वे नये राजनीतिक दलों के गठन का सुझाव दे रहे थे। दरअसल, वह दलविहीन राजनैतिक व्यवस्था की वात कर रहे थे। वह कुदावोलाई व्यवस्था जैसी किसी व्यवस्था की ओर इशारा कर रहे थे। क्या अव हमें उनकी सलाह पर ध्यान देना चाहिए?
(लेखक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी में लोकनीति के सूत्रधार हैं)
डिस्क्लेमर:
ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।
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