किसान की आमदनी चौगुनी कैसे हो? | पार्ट: १

हल जोतने वालों,
अपनी ही ज़मीन पर दीवार खड़ी करने से पहले देखो
यहां लाल फीते में बंधी एक कागज़ों की दीवार है,
इसे हिलाकर बताओ
कि ये कितनी भारी है।

ज़मीन के मालिकाना हक़ में कई तरह के अधिकार होते हैं, जैसे बेचने का अधिकार, बिल्डिंग निर्माण का अधिकार, किराये पर देने का अधिकार। हालांकि, जब कृषि भूमि की बात आती है, तो यह हक़ काफी कमजोर है। भारतीय राज्यों के कानून किसानो और जमींदारों पर अपनी ज़मीन के इस्तेमाल पर कई तरह की रोक लगाए हुए हैं। भारतीय राज्यों में कानून, कृषि भूमि की बिक्री, खरीद, उपयोग और पट्टे पर कई तरह की बंदिशें लगाते हैं। इन बंदिशों का मक़सद हैं, किसानों को शोषण से बचाना और कृषि अर्थव्यवस्था में दक्षता और समानता को बढ़ावा देना। हालांकि, इन बंदिशों का उल्टा ही असर हुआ है ।

भारत में, कृषि भूमि बहुत छोटे -छोटे टुकड़ों में बँटी हुई है, और अधिकांश जोत बहुत छोटी हैं। कृषि परिवारों के हालिया NSSO सर्वेक्षण में बताया गया है कि औसत जोत का आकार 1.15 हेक्टेयर (2012-13) से घटकर में 0.876 हेक्टेयर (2018-19) रह गया है। इतनी छोटी जोत में कोई ट्रेक्टर या मशीनें को उपयोग नहीं है। लैटिन अमेरिका में, जोत का औसत माप 67 हेक्टेयर है। भारत में कृषि यंत्रीकरण केवल लगभग 40% है। ब्राजील में, मशीनीकरण 75% है। वर्तमान में, हमारे 76.5% किसानों के पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि है, और उनमें से अधिकांश मुख्य रूप से मजदूरी कमाने वाले हैं या गैर-कृषि स्रोतों से आय पर निर्भर है।

छोटी जोत का मतलब है कि इस क्षेत्र में बड़ा पूंजी निवेश हो नहीं सकता, जो वाकई में हुआ भी नहीं है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में कार्यबल का बहुत कम प्रतिशत कृषि में लगा हुआ है। ब्राजील में यह 9% है, संयुक्त राज्य अमेरिका में यह 1% है। भारत में यह लगभग 50% है। जनसंख्या के इतने बड़े हिस्से को अच्छी आय सुनिश्चित करने के लिए भारत के पास कृषि उपज में पर्याप्त राजस्व पैदा करने की क्षमता नहीं है।

एक सीएसडीएस सर्वेक्षण से पता चलता है कि 60% से अधिक किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। ये कोई अलग या नई बात नहीं हैं; सभी औद्योगीकृत देशों में किसान धीरे धीरे खेती-बाड़ी छोड़कर दुसरे काम धंधों में लगे। दक्षिण कोरिया, ताइवान, वियतनाम और अन्य एशियाई देशों ने अपने कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा कृषि से अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में तेजी से स्थानांतरित कर दिया। इस पारी से दोनों को फायदा हुआ – उन किसानों को जो खेती में ही रह गए थे और उन्हें भी, जो मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में काम करने के लिए चले गए थे।

एक हिंदुस्तानी किसान ज़मीन को अपनी माँ मानता हैं, ज़मीन उसकी और उसके परिवार की आन, बान, शान है। किसान अपनी जमीन को बेचना नहीं चाहते, लेकिन उसे पट्टे पर देना चाहते हैं। पट्टे पर देने में उन्हें कोई समस्या नहीं हैं। बल्कि इससे वो अच्छा खासा कमा सकते हैं, और साथ कहीं और या कुछ और जीविका तलाश सकते हैं। लेकिन पट्टे पर बहुत ज़्यादा बंदिशें लगाने वाले कानूनों के वजह से किसान ऐसा नहीं कर पाते।

कानून ये तय करते हैं कि पट्टे की लंबाई क्या हो, किसको पट्टे पर दे सकते हैं, किस काम के लिए दे सकते हैं, कितना किराया वसूल सकते हैं, और क्या पट्टे पर देने के बाद उसे वापिस ले सकते हैं या नहीं । इन अनगिनत बंदिशों का मतलब है, बेक़ायदा या अनौपचारीक पट्टे को बढ़ावा। औपचारिक रूप से पट्टे पर दी गई भूमि, (जैसा कि कृषि जनगणना में परिलक्षित है) और घरेलू सर्वेक्षणों के अनुसार पट्टे पर दी गई भूमि के बीच अक्सर 10 गुना से अधिक अंतर होता है। ये बेकायदा पट्टे बाजार निवेश को हतोत्साहित करते हैं और भूमि का पूरा और सही उपयोग नहीं होने देते।

अधिकांश राज्य कानून कृषि भूमि के उपयोग को केवल कृषि उद्देश्यों तक ही सीमित रखते हैं। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र भूमि राजस्व संहिता, 1966 की धारा 42 घोषित करती है कि “कृषि के लिए उपयोग की जाने वाली किसी भी भूमि का उपयोग किसी भी गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाएगा।” अन्य उपयोगों के लिए इस्तेमाल की तब्दीली की इज़ाज़त मिल सकती है, लेकिन वो इज़ाज़त के लिए एक बहुत पचड़े वाली कागज़ी व्यवस्था है।

ये कितनी हैरानी की बात है कि अपना व्यवसाय शुरू करने के लिए किसान अपनी ही ज़मीन का उपयोग नहीं कर सकते हैं; उन्हें खेती ही करनी पड़ेगी, भले ही बेहतर विकल्प हों।

इन बंदिशों को हटाना थोड़ा मुश्किल है, खासकर क्योंकि इनमें से ज़्यादातर को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाला गया है। पर ये बदलाव् नामुमकिन नहीं। किसानी की आमदनी को चौगुना करने के लिए राज्य विधानसभाओं को इतना तो करना ही चाहिए।

(रिसर्च और आंकड़ों के लिए अर्जुन कृष्णन – CCS का आभार)

यह लेख मूल रूप से 07 फ़रवरी 2022 को नवभारत टाइम्स में  प्रकाशित हुआ था|

लेखक के बारे में

प्रशांत नारंग

प्रशांत नारंग एडवोकेट हैं। सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी में उनके सबसे महत्वपूर्ण योगदान में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस सुधार सिफारिशें और स्ट्रीट वेंडर कंप्लायंस इंडेक्स शामिल हैं। उन्होंने राजस्थान में स्ट्रीट वेंडर कानून के कार्यान्वयन के लिए सर्वोच्च न्यायालय से एक अनुकूल निर्णय भी प्राप्त किया। कानूनी क्षेत्र के सुधारों, शिक्षा का अधिकार अधिनियम और स्ट्रीट वेंडर्स अधिनियम पर लिखित जर्नल पेपर और छोटे टुकड़े होने के कारण, उनकी वर्तमान रुचि क्षेत्र कानून का शासन और भारत में व्यापार और व्यापार करने का संवैधानिक अधिकार है।

डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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