बेहतर प्रबंधन हो तो जनसंख्या समस्या नहीं समृद्धि का आधार है

दुनिया की आबादी आठ अरब पहुंच गई है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक वैश्विक आबादी के सात अरब से आठ अरब होने में 12 वर्षों का समय लगा। इससे पहले जनसंख्या के छह अरब (1998) से सात अरब (2010) पहुंचने में भी 12 वर्षों का ही समय लगा था। उम्मीद के अनुरूप वैश्विक जनसंख्या वृद्धि में भारत और चीन का योगदान सर्वाधिक रहा। सर्वाधिक 17.7 करोड़ लोगों के योगदान के साथ भारत पहले नंबर पर जबकि 7.3 करोड़ लोगों के योगदान के साथ चीन दूसरे नंबर पर है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) द्वारा यह कहने के बावजूद कि भारत की जनसंख्या वृद्धि दर स्थिर है यहां प्रति महिला पैदा वाले बच्चों की औसत संख्या राष्ट्रीय स्तर पर 2.2 से घटकर 2.0 रह गई है, विशेषज्ञ इसे लेकर चिंतित दिखाई दे रहे हैं। एक बार फिर से जनसंख्या को समस्या के तौर पर प्रस्तुत किया जाना शुरू कर दिया गया है और ऐसे तमाम सुझावों की फिर से भरमार हो गई है जो ये बताते हैं कि किस कदर देश (और दुनिया में भी) में बड़े शहरों पर आबादी का बोझ बढ़ता जा रहा है। पर क्या वास्तव में हालात वैसे ही हैं जैसा कि बताया जा रहा है? नॉन कन्वेंशनल विचारधारा यह कहती है कि विशाल जनसंख्या समस्या कम और सुविधा और समृद्धि का पर्याय ज्यादा है।

 

जनसंख्या आर्थिक समृद्धि का आधार है

जब ऐसा कहा गया है कि मानव (Home Economicus) धन पैदा करने के लिए तैयार किया गया एक यंत्र है, तो भारतीय अर्थशास्त्र में बताए जा रहे उस तर्क की जांच करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है, जिसके अनुसार भारत की विशाल जनसंख्या गरीबी का एक कारण है। यदि मनुष्य एक मात्र ऐसी प्रजाति है जो धन पैदा कर सकती है, तो इसकी अधिक संख्या गरीबी का कारण कैसे हो सकती है? सच क्या है?

सच यह है कि नक्शे पर अंकित प्रत्येक बिंदु, जो किसी शहर या कस्बे को प्रदर्शित करता है और घनी आबादी वाला है, अन्य स्थानों ( जैसे कि गांव आदि जो नक्शे पर नहीं दिखते) की अपेक्षा समृद्ध है। भीड़ भरी दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में खाली पड़े किसी गांव के मुकाबले कहीं ज्यादा लखपति और करोड़पति हैं। इन शहरों में ज्यादा मोबाइल फोन या बड़ी कारें और लग्जरी वस्तुएं हैं। बड़े स्कूल, कॉलेज, अस्पताल आदि भी भीड़ भाड़ वाले शहरों में ही हैं। स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है – ऐसा क्यों? उत्तर के लिए हमें देखना होगा – अर्थशास्त्र की ओर। अर्थशास्त्र यानी धन पैदा करने का अध्ययन।

चूंकि हम व्यापार कर सकते हैं, अतः अपने उन कार्यों में हम विशेषज्ञता अर्जित करते हैं, जिन्हें हम ही सबसे अच्छे तरीके से कर सकते हैं और इन्हें दूसरों की उन वस्तुओं या कार्यों से बदल लेते हैं, जिन्हें वे सबसे अच्छी तरह से कर सकते हैं। जानवरों की तरह मनुष्य स्व-पर्याप्ती (self-sufficient) होने की कोशिश नहीं करते हैं। वरन् ये अपने लिए एक विशेष कार्यक्षेत्र चुनते हैं। इन विशिष्ट कार्यक्षेत्रों में वे उन वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन करते हैं, जिनका बाजार अर्थव्यवस्था में विनिमय किया जा सके। किसान, मछुआरे, गड़ेरिये, पत्रकार, दंत चिकित्सक, धोबी इत्यादि सभी इसी व्यवस्था के उदाहरण हैं। मनुष्यों के अतिरिक्त कोई भी अन्य प्रजाति इस ढंग से विशेषीकृत नहीं होती है क्योंकि उनके पास बाजार अर्थव्यवस्था नहीं होती है। यह बजार अर्थव्यवस्था सिर्फ हम मनुष्यों की व्यापार करने की विशेष योग्यता का ही परिणाम है। इसी प्रकार धन पैदा किया जाता है।

अतः आर्थिक रूप से मनुष्यों को कभी भी स्व-पर्याप्ती (self-sufficient) होने की सलाह नहीं दी जानी चाहिए। जरा सोचिए कि यदि आपने निश्चय किया कि आप सभी कार्य अपने आप करेंगे तथा सेवाओं व वस्तुओं का आदान-प्रदान नहीं करेंगे, तो क्या होगा? सोचिए यदि आपका परिवार, फिर आपका गांव या शहर सभी स्व- पर्याप्ती हो जायें? इसका अर्थ यह होगा कि आपको न केवल अपना भोजन पैदा करने एवं कपड़े धोने के लिए बाध्य होना पड़ेगा वरन् आपको अपना मकान बनाना, सर्जरी या ऑपरेशन करना आदि भी सीखना पड़ेगा। इस प्रकार स्व-पर्याप्तता कभी भी जीवन स्तर को ऊपर नहीं उठाती। इसका कुल परिणाम यह होता है कि आपकी उत्पादन ऊर्जा आपके विशेष योग्यता वाले क्षेत्रों से हटकर ऐसी जगहों व कार्यों पर बर्बाद होना शुरू होती है जिनमें आपको महारत नहीं होती।

यदि इस प्रकार की स्व-पर्याप्तता एक व्यक्ति, परिवार, एक गांव, एक कस्बे के ले नुकसानदेह है तो निश्चित ही भारत जैसा एक महान देश भी इस रास्ते को अपनाकर फायदे में नहीं रह सकता।

 

स्व-पर्याप्तता एक प्रकार की आर्थिक आत्महत्या (Economic Suicide) है

स्व-पर्याप्तता को समझने के लिए एक छोटा सा प्रयोग करें – बच्चों की एक कक्षा में जाइये और उनसे पूछिए कि वे बडे होकर क्या बनना चाहते हैं? वे जवाब देंगे – एक्टर, डान्सर, सिपाही, डॉक्टर आदि। मैं शर्त लगा सकता हूं कि उनमें से कोई भी यह नहीं कहेगा कि मैं बड़ा होकर स्व-पर्याप्ती बनूंगा। (अर्थात स्वयं को इस रूप में विकसित करूंगा कि सारे कार्य स्वयं कर सकूं, किसी पर निर्भर न रहना पड़े)। यदि स्व-पर्याप्तता छोटे बच्चों के तर्कों से विरोधी है तो यह पूरे देश के लिए कैसे तार्किक हो सकती है?

जब हम बाजार-अर्थव्यवस्था को विशेषीकृत करते हैं तो एक प्रक्रिया शुरू होती है, जिसे अर्थशास्त्री “श्रम विभाजन” कहते हैं।

 

अर्थशास्त्र श्रम विभाजन द्वारा धन की उत्पत्ति का अध्ययन है

अनेक विशेष योग्यताओं वाली भूमिकाओं के बीच श्रम विभाजन शहरी क्षेत्रों में ही सर्वाधिक उपयुक्त रूप से संभव है। एक गांव में जहां बहुत कम लोग होते हैं, वहां श्रम विभाजन अत्यंत दुष्कर कार्य है। यही वजह है कि गांव में सफल शल्य चिकित्सक, यहां तक कि सफल धोबी होने की गुंजाइश भी कम होती है।

इसीलिए नक्शे पर दिखने वाला प्रत्येक बिंदु (कोई शहर या कस्बा) घनी आबादी वाला होता है और समृद्ध होता है। किसी भी शहर या कस्बे (जहां अपेक्षाकृत जनसंख्या ज्यादा होती है) में कम जनसंख्या वाले गांव के मुकाबले अधिक संपन्नता होती है क्योंकि वहां श्रम विभाजन अधिक होता है। श्रम विभाजन की सीमा व मात्रा बाजार के आकार पर निर्भर करती है। बाजार जितना व्यापक होता है, श्रम विभाजन उतना ही ज्यादा होता है। उदाहरण के लिए – यदि आप एक चाइनीज भोजनालय खोलना चाहते हैं और चाहते है कि प्रतिदिन कम से कम 100 ग्राहक आएं और यदि 100 में एक व्यक्ति किसी दिन चाइनीज भोजन करना चाहता है तो अपने 100 ग्राहक प्रतिदिन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए आपको ऐसे कस्बे या शहर की आवश्यकता होगी जहां कम से कम दस हजार संभावित ग्राहक हों। यही कारण है कि भीड़ भरे, ज्यादा जनसंख्या वाले शहर समृद्ध हैं – क्योंकि वहां श्रम का विभाजन ज्यादा होता है। यह एक शाश्वत प्रक्रिया है- केवल दिल्ली या मुंबई ही नहीं वरन् लंदन, टोक्यो, न्यूयॉर्क एवं पेरिस आदि सभी घनी जनसंख्या युक्त एवं समृद्ध हैं।

संसार का लगभग 50 प्रतिशत शहरीकरण हो चुका है – अर्थात विश्व की 50 प्रतिशत जनसंख्या शहरों एवं कस्बों में निवास करती है। भारत विश्व के इस औसत प्रतिशत से काफी नीचे, मात्र 30 प्रतिशत पर है। परंतु भारत के समृद्धतम राज्य गुजरात एवं महाराष्ट्र में शहरीकरण का औसत विश्व के औसत 50 प्रतिशत के आस-पास है जबकि भारत के सबसे गरीब राज्य जैसे – असम एवं बिहार में शहरीकरण का औसत 10 प्रतिशत से भी कम है।

यहां यह जानना महत्वपूर्ण है कि सभ्यता (civilization) शब्द लैटिन भाषा के शब्द सिविटास (civitas) से लिया गया है, जिसका अर्थ शहर (city) होता है। सभ्यता की कहानी, मध्य सागर के चारों ओर बसे हुए तथा एक दूसरे के साथ वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान अर्थात व्यापार करने वाले बड़े शहरों के निर्माण की ही कहानी है। मोहन-जो-दाड़ो एवं हड़प्पा भी, लोथल बंदरगाह द्वारा, मध्य सागर से जुड़े हुए महान शहर थे। इस छोटे और सुरक्षित सागर ने परिवहन की सुविधा दी, जिससे व्यापार को बढ़ावा मिला। शहर एवं कस्बे मानव उपनिवेशिकों की बांबी हैं। शहर को बर्बाद कर विकास को कोई भी प्रयास निरर्थक है।

सम्पूर्ण विश्व में शहरीकरण श्रम विभाजन की सहायता से समृद्धि बढ़ाता है। इसलिए भारत जैसे देशों में शहरीकरण को संपन्नता बढ़ाने के साधन के रूप में अपनाना सरकार के पिछले 50 वर्षों के प्रयासों (ग्रामीण विकास के नाम पर निरर्थक धन का व्यय) की अपेक्षा बेहतर विकल्प है। अभी हाल ही के आर्थर एंडरसन फार्च्यून के विश्वव्यापी सर्वे में भारत के शहरों को सबसे खस्ताहाल स्थिति में पाया गया। निश्चित ही संपन्न देश होने का यह तरीका नहीं है।

सामान्य कुप्रबंधन के अलावा, सड़कों की बदतर स्थिति भी हमारे नगरीय क्षेत्र की बर्बादी का एक प्रमुख कारण है। इस मुद्दे पर हम बाद के अध्यायों में विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे। अभी के लिए यह समझें कि हमारे यहां की एसटीडी कोड की पुस्तक में 400 से अधिक नाम है। अर्थात इतने सारे शहर हैं। परंतु शहरी जनसंख्या का अधिकांश (एक अनुमान के मुताबिक 62.5%) केवल कुछ मुट्ठी भर विशाल महानगरों में केंद्रित है, जो कि प्रतिदिन और बढ़ रहा है। शहरी भूगोल शास्त्री (जो शहरों एवं कस्बों के भूगोल का अध्ययन करते हैं) इस प्रक्रिया क आधिपत्य (Primacy) कहते हैं। आधिपत्य तब होता है जब मुख्य शहर अपने आस पास के कस्बों से सही प्रकार से जुड़ा नहीं होता तथा स्वयं भरता जाता है। यदि सड़कें अच्छी होती तो उपनगरों (सैटेलाइट कस्बों) का विकास होता और केवल कुछ गिने चुने महानगरों पर पड़ने वाला अत्यधिक दबाव कम होता और एसटीडी कोड की किताब का प्रत्येक नाम एक छोटा सिंगापुर होता।

अंग्रेजों ने अपने समय में भारत मे कई बढ़िया शहर व असंख्य हिल स्टेशन बनाए। पिछले पचास वर्षों में हमारे सभी शहरी क्षेत्र बर्बाद हो चुके हैं। ब्रिटिश कालीन भारत में सभी हिल स्टेशन किसी न किसी महानगर से जुड़े थे। यथा – दार्जिलिंग-शिलांग का क्षेत्र कोलकाता से, पूना-महाबलेश्वर का क्षेत्र मुंबई से, ऊटी-कुन्नूर का क्षेत्र चेन्नई से तथा शिमला-मसूरी का क्षेत्र दिल्ली से जुड़ा है। इसी तरह से यदि हमारे शहरी क्षेत्र महानगरों से जुड़ जायें तो वे सभी सिंगापुर की तरह हो सकते हैं। ध्यान रहें, सिंगापुर 1965 में ही आजाद हुआ और कुलियों तथा फेरी वालों की भीड़ से भरे छोटे से गंदे शहर से आज उभरता हुआ विकसित शहर बन गया है।

सड़कों की बदतर स्थिति के कारण भारत में जरूरत से ज्यादा भीड़ है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि देश में आवश्यकता से अधिक जनसंख्या है। कभी ट्रन या हवाई जहाज से यात्रा करें तो आप पायेंगे कि भारत में विशाल खुले मैदान हैं। जापान, जर्मनी, हॉलैंड एवं बेल्जियम का जनसंख्या घनत्व (प्रति वर्ग किलोमीटर में व्यक्तियों की संख्या) भारत के जनसंख्या घनत्व से अधिक है फिर भी इन देशों के शहरों में अत्यधिक भीड़ की समस्या नहीं है। शहरों में बढ़ती अत्यधिक भीड़ को रोकने का उपाय परिवार नियंत्रण नहीं है, वरन् वे सड़कें हैं जो बहुत सारे कस्बों को मुख्य शहर से जोड़ेंगीं। बहुत सारे शहरी क्षेत्र अर्थात 400 सिंगापुर होने से भारतीयों के पास आवश्यकता अनुरूप रहने के लिए स्थान होगा तथा अत्यधिक भीड़ की समस्या समाप्त होगी।

इसलिए यह तर्क दृष्टिकोणों में द्वंद पैदा करता है। हजारों स्वशासित व स्व-पर्याप्त ग्रामीण संघों (गांधी व नेहरू का दृष्टिकोण) के रूप में भारत का भविष्य देखने की अपेक्षा हम भारत को एक शहरी सभ्यता के रूप में देख सकते हैं। ऐसे 400 बढ़िया शहरों के मध्य, जो कि सड़क, रेल, या वायुमार्ग द्वारा भली प्रकार जुड़े हों, सर्वाधिक व्यापार सबसे कम कीमत पर संपन्न हो सकता है। घटिया परिवहन व्यवस्था व्यापार को महंगी व धीमी बनाती है। एक ट्रक एक दिन में भारतीय राजमार्गों पर लगभग 250 किमी चलता है जबकि शेष संसार में 600 किमी से अधिक चलता है।

ऐसा कहा जाता है कि “प्रत्येक बड़ा शहर अपने परिवहन तंत्र पर विशाल मकड़ी की तरह बैठा होता है।” भारत को भी ऐसे शहरों एवं कस्बों की आवश्यकता है।

चूंकि मानव मात्र ही आर्थिक गतिविधियां संपन्न कर सकते हैं और चूंकि शहर समृद्ध होते हैं अतः ऐसा कहा जाना चाहिए कि “ जनसंख्या को गरीबी का कारण बताने वाला सिद्धांत” शैतान का दर्शन है।

यह दर्शन माता-पिता को बच्चे पैदा करने के कारण शर्मिंदा करता है। यह दर्शन बच्चों में यह भावना पैदा करता है कि वे संसाधन नहीं हैं वरन् समस्या हैं। यह दर्शन मार्ग-दुर्घटनाओं के आंकड़ों पर मानवद्वेषी नजर रखता है और कहता है कि हमारी असुरक्षित सड़कें बढ़ती जनसंख्या की समस्या का एक उदाहरण हैं।

मानव दुनिया के सर्वोत्तम संसाधन हैं क्योंकि उनके पास सोचने के लिए मानव मस्तिष्क है। आप उसी मस्तिष्क में ज्ञान उड़ेलने का अर्थात् खुराक देने का प्रयास कर रहे हैं। अतः कृपया यह निश्चित कर लें कि जो भी खुराक आप मस्तिष्क को दें वह सत्य पर आधारित हो। असत्य दर्शन आपके मस्तिष्क को मृत कर देगा तथा फिर आपको यह नहीं सोचने देगा कि आप अपने दिमाग के प्रयोग व व्यापार करने की योग्यता से, मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में अपना सर्वोत्तम कार्य करते हुए धन पैदा कर सकते हैं। बल्कि यह आपको इस प्रकार सोचने के लिए प्रशिक्षित करेगा कि आप एवं आपके भाई-बंधु ही विकराल समस्या हैं, जिनके समाधान के लिए आपको राजनीतिक कार्यवाही की आवश्यकता है।

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Azadi.me
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ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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