जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों के विज्ञान और अर्थशास्त्र पर भारी राजनीति

21वीं सदी में विश्व के समक्ष जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों के बाद सबसे बड़ी चुनौती विशाल जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2019 में ऐसे लोगों की संख्या 82 करोड़ से अधिक थी जिन्हें भरपेट भोजन नसीब नहीं हो सका। परिणाम स्वरूप 5 वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों की बड़ी तादाद कुपोषण का शिकार हुई और इससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास प्रभावित हुआ। वर्ष 2050 तक दुनिया की जनसंख्या के बढ़कर 9.3 अरब होने की उम्मीद है। इतनी बड़ी जनसंख्या का पेट भरने के लिए वर्तमान में उत्पादित होने वाले खाद्यान्नों की तुलना में 70 प्रतिशत तक अधिक खाद्यान्न के उत्पादन की जरूरत पड़ेगी। जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों और जमीन की घटती उर्वरा शक्ति के कारण इतनी बड़ी आबादी के लिए पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्नों का उत्पादन दुनियाभर के कृषि वैज्ञानिकों के लिए सिरदर्द बनी हुई है। उधर, 2050 तक भारत की आबादी के भी 1.7 अरब होने की उम्मीद है और इतनी बड़ी आबादी के जरूरत के लिए वर्तमान की तुलना में कम से कम 32 प्रतिशत अधिक खाद्यान्न पैदा करने की जरूरत पड़ेगी। वैसे भी जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की मार जिन देशों पर सबसे अधिक पड़ने वाली है जिसमें भारत भी शुमार है।

आसन्न संकट को देखते हुए दुनियाभर के नीति नियंताओं के बीच खाद्यान्न संकट से निबटने के लिए कृषि के क्षेत्र में अत्याधुनिक तकनीकि के प्रयोग से उत्पादन में वृद्धि और उत्पादों के बेहतर संरक्षण को लेकर सहयोग और सामंजस्य पर सहमति तैयार करने का दौर जारी है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करते हुए और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देते हुए खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि की चुनौती बड़ी है लेकिन जेनेटिकली मॉडिफाइड यानी अनुवांशिक रूप से संशोधित कृषि उत्पादन तकनीकि से उम्मीद जगती है।

जीएम फसलों का विज्ञान

जीएम तकनीक से फसलों को जहां कीट, बीमारी और खरपतवार रोधी बनाए जाने में सफलता प्राप्त हुई है वहीं मौसम जनित विषमताओं को झेलने में भी आसानी हुई है। एक दशक पूर्व विकसित सब1ए प्रकार के धान का पौधा बाढ़ और सूखे दोनों प्रकार की परिस्थितियों को झेलने में सक्षम है वहीं विटामिन ए की प्रचुरता वाले गोल्डन राइस जैसे अन्य उत्पादों का विकल्प भी मौजूद है। चूंकि बीजों को विकसित करने के दौरान ही उनके जीन में परिवर्तन कर उन्हें कीट, बीमारी और खरपतवार रोधी बना दिया जाता है इसलिए पूरे फसल चक्र के दौरान इन पर रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव की या तो जरूरत नहीं पड़ती या बहुत कम पड़ती है। इस पद्धति से की जाने वाली खेती में बीज रोपने के लिए खेतों की बहुत अधिक जुताई करने की जरूरत भी नहीं पड़ती है जिससे पेट्रो पदार्थों की खपत और प्रदूषक गैसों के उत्सर्जन में भी कमी आती है। रसायनों के न्यून प्रयोग के कारण पर्यावरण संरक्षण और मानव स्वास्थ्य के लिहाज से भी यह पारंपरिक कृषि की तुलना में अधिक प्रभावी है।

इसकी तस्दीक दुनिया भर के लगभग 3 हजार वैज्ञानिक अध्ययनों के द्वारा भी होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूरोपीय आयोग और रॉयल सोसाइटी ऑफ मेडिसिन सहित वैश्विक स्तर के 284 संस्थान जीएम फसलों को मानव और पर्यावरण के लिए सुरक्षित मानते हैं। 2016 में नेशनल एकेटमी ऑफ साइंसेज़, इंजीनियरिंग और मेडिसिन ने 9 सौ से अधिक प्रकाशनों की समीक्षा की, 80 वक्ताओं को सुना और जनता से 7 सौ से अधिक टिप्पणियां एकत्रित की। वे सभी एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे कि गैर जीएम फसलों की तुलना में जीएम उत्पाद मानव स्वास्थ्य के लिए कोई जोखिम पैदा नहीं करते हैं और न ही वे स्पष्ट रूप से किसी पर्यावरणीय समस्या का कारण बनते हैं। यहां तक कि भारत सरकार द्वारा भी संसद में बयान दिया जा चुका है कि जीएम सुरक्षित हैं।

जीएम फसलों का अर्थशास्त्र

वर्ष 1996 तक दुनियाभर में जीएम फसलों का कुल रकबा जहां 17 लाख हेक्टेयर था वहीं 2019 आते आते यह बढ़कर 1 करोड़ 94 लाख हेक्टेयर तक हो गया। भारतीय किसानों ने भी बीटी कॉटन के प्रयोग से बंपर उत्पादन प्राप्त करने और देश को शुद्ध आयातक से शुद्ध निर्यातक में परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त की है। कॉटन उत्पादकों ने बीटी बीज की मदद से उत्पादन में 22 प्रतिशत की वृद्धि और मुनाफे में 68 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की जबकि इसी दौरान रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग में 37 प्रतिशत की कमी हुई। बीटी कॉटन की सफलता से उत्साहित भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने वर्ष 2009 में ही बीटी बैंगन भी तैयार कर लिया। कुछ समय के भीतर ही भारतीय वैज्ञानिकों के द्वारा बीटी सरसों की नस्ल भी तैयार कर ली गई। यह बात और है कि भारत में किसान तो बीटी बैंगन उपजाने की अनुमति की राह तकते रहे जबकि पड़ोसी बांग्लादेश ने वर्ष 2014 में ही बीटी बैंगन का वाणिज्यिक उत्पादन शुरू कर दिया। 2018 में जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेज़ल कमेटी (जीईएसी) की बैठक में बांग्लादेश में करीब 50 हज़ार किसानों द्वारा बीटी बैंगन उगाने की जानकारी दी गई थी। इसमें से 27 हज़ार से ज्यादा किसान ऐसे थे जिन्होंने पिछली फसल से अपने बीज बचाने के बावजूद नए बीटी बीजों का इस्तेमाल किया था।

इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) और बांग्लादेश एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट (बारी) ने बांग्लादेश में बीटी बैंगन की खेती करने और न करने वाले किसानों में 2018 में एक परीक्षण किया और पाया कि बीटी बैंगन की खेती करने वाले किसानों की प्रति किलोग्राम लागत में 31 फीसदी की कमी और प्रति हेक्टेयर कमाई में 27.3 फीसदी की वृद्धि हुई। जबकि कीटनाशकों के प्रयोग में 39 फीसदी की कमी आई और बीटी बैंगन में एफएबीस कीड़े का प्रकोप केवल 1.8 फीसदी था, जबकि दूसरी किस्म के बैंगन में 33.9 फीसदी था। गत वर्ष फिलीपींस में भी बीटी बैंगन को मंजूरी दे दी गई। यही सूरते हाल भारतीय कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित सरसों की जीएम किस्म का भी है।

जीएम फसलों के उत्पादन से वर्ष 1996 से 2018 के बीच वैश्विक स्तर पर कृषि से होने वाली आय में 225 बिलियन डॉलर की वृद्धि हुई। जीएम फसलों का बड़े स्तर पर उत्पादन करने के कारण इस अतिरिक्त आय का सबसे बड़ा भाग (46%) अमेरिका के हिस्से में आया। अर्जेंटीना, ब्राजील और चीन को भी क्रमशः 12.5%, 11.8%, और 10.3% का अतिरिक्त मुनाफा हुआ। भारत को भी बीटी कॉटन के उत्पादन के कारण 10.8% का अतिरिक्त मुनाफा हुआ। परंपरागत कॉटन के उत्पादन के दौरान भारी मात्रा में कीटनाशकों का प्रयोग किसानों के लिए मजबूरी थी। एक अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2001 तक देश में प्रयुक्त होने वाले कुल पेस्टिसाइड्स (कीटनाशकों) का 45% और कुल इंसेक्टिसाइड्स (कृमिनाशकों) का 71% भाग कॉटन की खेती में प्रयुक्त होता था। बीटी प्रजाति के कॉटन के वाणिज्यिक उत्पादन की अनुमति मिलने के बाद इंसेक्टिसाइड्स के प्रयोग में 95% तक की कमी आई और वर्ष 2002-03 में 4470 मीट्रिक टन से घटकर वर्ष 2011-12 में 222 मीट्रिक टन तक रह गया। कॉटन की बीटी प्रजाती के कारण देश में कॉटन के उत्पादन और इससे किसानों की आय में महत्वपूर्ण रूप से वृद्धि हुई। वर्ष 2002 से 2008 के बीच के आंकड़े बताते हैं कि उस दौरान उत्पादन में 24% की वृद्धि सीमांत आय में 50% की वृद्धि हुई।

जीएम फसलों की राजनीति

दरअसल, भारत में जीएम फसलों का मुद्दा खाद्यान्न आपूर्ति से ज्यादा राजनीति का मुद्दा बन चुका है। एक आधारहीन अवधारणा के बल पर यह साबित करने का अनवरत प्रयास चल रहा है कि जीएम खाद्य पदार्थ मानव स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है। इसके अतिरिक्त इसे विदेशी बीज उत्पादकों के मुनाफे से जोड़कर देसी भावनाओं को भड़काने का काम किया जा रहा है। कुछ सामाजिक संगठनों, कृषि विशेषज्ञों, कीटनाशक उत्पादकों की लॉबी आदि के दबाव में सरकार चाहते हुए भी जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों के वाणिज्यिक उत्पादन की अनुमति नहीं दे पा रही है। जबकि शेतकरी संगठन के नेतृत्व में महाराष्ट्र के किसान पिछले कई वर्षों से जीएम फसलों के वाणिज्यिक उत्पादन की अनुमति की मांग को लेकर सत्याग्रह कर रहे हैं और कानून के खिलाफ जाते हुए जीएम फसलों की बुआई कर रहे हैं।

दरअसल, भारत में जीएम फसलों का विनियमन पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अधीन  ‘खतरनाक सूक्ष्मजीवों, अनुवांशिक रूप से अभियांत्रिक जीवों या कोशिकाओं के उत्पादन, उपयोग, आयात, निर्यात और भंडारण के लिए नियम, 1989’ के तहत होता है। नियमतः जीएम फसलों को अंतिम अनुमति के पूर्व प्रयोगशाला के लिए अनुमति, क्षेत्र परीक्षण के लिए अनुमति, पारिस्थितिक निर्गमन के लिए अनुमति और वाणिज्यिक अनुमति जैसे अनुमतियों के चार चरणों से होकर गुजरना होता है। यदि जेनिटिकली मॉडिफाइड उत्पाद इन चारों चरणों को सफलतापूर्वक पूरा कर भी ले तो भी यह आवश्यक नहीं कि कृषि वैज्ञानिकों की मेहनत मूर्त रूप ले ही ले। क्योंकि तब उस एक अनाधिकारिक अनुमति की जरूरत पड़ती है जो वोट बैंक और एक्टिविज़्म की राजनीति के रहमों करम पर निर्भर होती है। इसकी बानगी देखिए।

देश में जीएम फसलों के विरोध को पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने पूर्वाग्रह से ग्रसित बताते हुए कहा था - ‘जीएम फसलों के विरुद्ध अवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित होना ठीक नहीं है। जैव प्रौद्योगिकी में फसलों की पैदावार बढ़ाने की पर्याप्त संभावना है और हमारी सरकार कृषि विकास हेतु इन नई तकनीकों को प्रोत्साहन देने के प्रति वचनबद्ध है।’ इसके बावजूद तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने फरवरी, 2010 में बीटी बैंगन के फील्ड ट्रायल की अनुमति नहीं दी। उनकी उत्तराधिकारी जयंती नटराजन ने भी फील्ड ट्रायल पर रोक जारी रखा। वर्ष 2014 में कांग्रेस के ही पर्यावरण मंत्री वीरप्पा मोइली ने फील्ड ट्रायल की अनुमति जारी की। उसी वर्ष केंद्र में भाजपा की सरकार आने पर पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने भी 16 जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल की अनुमति दे दी लेकिन व्यापक विरोध के बाद उन्होंने भी फैसले को वापस लेना ही बेहतर समझा। यह तब है जब सरकार ने आधिकारिक रूप से संसद में जीएम फसलों के मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर किसी प्रतिकूल प्रभाव की संभावना से इंकार किया था। हाल ही में केंद्र सरकार ने जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल से संबंधित अंतिम फैसलों को राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ने की घोषणा की। यह तब है जब कि इस संबंध में फैसला लेने के लिए सक्षम जीईएसी ने कई फसलों के फील्ड ट्रायल की संस्तुति की है। इसके अलावा एमएस स्वामीनाथन के नेतृत्व में जाने माने कृषि वैज्ञानिकों का दल सरकार से मिलकर जीएम फसलों के समर्थन में 15 बिन्दुओं वाले प्रस्ताव को सौंपा है। फिर भी किसानों को सरकार की तरफ से जीएम फसलों के कानूनी उत्पादन की हरी झंडी मिलने का इंतजार खत्म होता प्रतीत नहीं हो रहा है।

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