क्या किसानों की तकलीफों का फिल्मों की तरह सुखद अंत होगा?

Dilwale

लोकप्रिय हिंदी फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ की कहानी और हाल में कानून का रुप लेने वाले कृषि विधेयकों के बीच एक अप्रत्याशित और मजेदार समानता है। यह समानता चुनने की आजादी से जुड़ी हुई है। फिल्म में नायिका अपने पसंद के इंसान के साथ जिंदगी बिताने की आजादी चाहती है और उसका कड़क मिजाज वाला पिता अपने हिसाब से उसके भले की सोचते हुए, उसे इस तरह की आजादी नहीं देना चाहता। हालांकि हमें पिता के इरादे नेक लग सकते हैं, उसकी सोच नायिका के लिए तकलीफें पैदा करती है। इसी तरह से बहुत सारे किसान अपने कृषि उपज के लिए खरीदार चुनने की आजादी चाहते हैं लेकिन कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) किसानों के लिए मंडियों से बाहर कृषि उपज बेचने पर रोक लगाना चाहता है। उसका दावा है कि इससे किसानों के हितों की रक्षा होगी लेकिन इस प्रावधान से किसानों का नुकसान ही होता दिख रहा है।

आज कृषि देश में 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से सबसे ज्यादा विनियमित क्षेत्र बना हुआ है। कृषि उपज उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020 कृषि क्षेत्र के उदारीकरण की दिशा में लंबे समय से रुका हुआ कदम है। कई सारे मॉडल एपीएमसी अधिनियमों और राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नैम) प्रस्ताव के बाद आया यह विधेयक एक उचित और पारदर्शी मूल्य तलाशने की व्यवस्था सुनिश्चित करने की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है।

खाद्य सुरक्षा और ऊंची कीमतें सुनिश्चित करने के अलावा एपीएमसी का उद्देश्य बाजार से जुड़ी कीमतें कम करना और किसानों को बाजार की उथल-पुथल से बचाना और बाजार में संकट के समय औने-पौने दाम पर की जाने वाली कृषि उपज की बिक्री को रोकना है। हालांकि एपीएमसी अधिनियम में किए गए कई बदलावों के बावजूद एपीएमसी के जरिये होने वाले व्यापार से व्यापारियों के एकाधिकार और बिचौलियों का उदय, ऊंचे बाजार शुल्क, कार्टेल का बाजार पर नियंत्रण और उत्पादकों के लिए कम कीमत की प्राप्ति जैसी समस्याएं सामने आयीं।

पूर्व में एपीएमसी की खामियों को दूर करने के लिए आंध्र प्रदेश में ‘ऋतु बाजार’ और कर्नाटक में ‘ऋतु संते’ जैसे प्रत्यक्ष विपणन के जरिए कोशिशें की गयीं लेकिन कीमतों के लिहाज से उनसे थोड़े ही समय के लिए लाभ मिला और वे बाजार के विस्तार के लिहाज से उपयुक्त नहीं थे। कई राज्यों ने एपीएमसी अधिनियम अधिसूचित नहीं किए और उन राज्यों में भी जहां संशोधन किए गए, सुधार व्यापक नहीं थे। आजादी के बाद से अब तक कृषि विपणन में 60 से ज्यादा बड़े नीतिगत हस्तक्षेप किए गए लेकिन अब भी जब-तब बाजार में संकट के समय औने-पौने दामों पर कृषि उपज की बिक्री होती है। इसके अलावा किसान अब भी घोर गरीबी में जी रहे हैं। इस देखते हुए किसानों की आजादी को लेकर मौजूदा विधेयक की व्यावहारिक सफलता को लेकर संदेह है।

विधेयक किसानों को अपने पसंद के खरीदार चुनने की आजादी देता है। यह व्यापारियों के बीच प्रतिस्पर्धा के निर्माण में भी मदद करता है। यह सरकार की विनियमित मंडियों के बाहर राज्यों के बीच और राज्यों के भीतर बाधा मुक्त व्यापार की मंजूरी देता है। निजी व्यापार क्षेत्रों को एपीएमसी शुल्कों और करों से छूट दी गयी है जिससे एपीएमसी के प्रतिस्पर्धी बनने पर जोर पड़ता है। केवल वे ही एपीएमसी विकास करेंगे जो किसानों को लुभा सकते हैं। अगर बेचने और खरीदने की आजादी के इस सिद्धांत से दूरसंचार एवं ऑटोमोबिल क्षेत्रों में प्रतिभागियों की संख्या तथा सबके लिए मौके बढ़ सकते हैं तो ऐसा कोई कारण नहीं है कि ऐसा कृषि क्षेत्र में नहीं हो सकता। 

इन चीजों के बावजूद आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 के साथ जोड़कर देखने पर यह कानून उम्मीद की एक किरण की तरह दिखता है। आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 कृषि उपज के भंडारण की सीमा को हटाता है। ये सुधार खरीद, भंडारण और खुदरा व्यापार के चरणों के जरिए आपूर्ति के चेन में बड़ी कंपनियों के निवेश का पक्ष लेते हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को लेकर केंद्र सरकार का दोस्ताना रुख, वित्तीय जोखिम उठाने को तैयार राज्यों के मुख्यमंत्री, दुनिया में सबसे बड़ी कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता इस विधेयक की सफलता के लिए उचित दशाएं उपलब्ध कराती हैं। इसके अलावा ये विधेयक राजग-2 सरकार के शुरुआती दिनों में ही पेश किए गए जिससे नीतियों को लेकर सरकार की ओर से स्पष्टता दिखती है और इससे कृषि आधारित व्यापारों के विश्वास को बढ़ावा मिलता है।

इस तरह से इस कानून का लक्ष्य किसानों को अतिविनियमन के चंगुल से आजाद करना है और बाजार तक पहुंच की खातिर किसानों को “जा सिमरन जा जी ले अपनी जिंदगी” (‘डीडीएलजे’ का मशहूर डॉयलॉग) जैसा मौका देना है। लेकिन हमारे लिए यह देखना बाकी होगा कि क्या विधेयक के जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन से सही में कोई सुखद अंत होता है जो यह दिखाए कि “इसके बाद किसान गरीबी से बाहर आ गये और फिर हमेशा खुशहाली में जिए।”

लेखक के बारे में

मानसा पीडाताला

लेखिका सेंटर फॉर सिविल सोसोइटी में रिसर्च असोसियेट हैं और ये उनके निजी विचार हैं

डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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