कृषि कानूनों में ऐसा क्या है जो उसे इतना विवादित बनाता है?

सरकार का कहना है कि कृषि कानून किसानों की आय को बढ़ाने के नए मौके उपलब्ध कराएगा दूसरी तरफ आंदोलनकारियों का कहना है कि नए कानून उन्हें निजी व्यापारियों के सामने असुरक्षित बनाते हैं। कानून और विवादास्पद मुद्दों पर एक नजर

30 से अधिक किसान संगठनों के साथ हजारों की तादात में किसान दिल्ली की सीमाओं पर डटे हैं और सरकार द्वारा तीनों कृषि कानूनों को वापस न लिए जाने की दशा में देश भर में आंदोलन को और तेज करने की धमकी दे रहे हैं। भले ही उनका प्रभाव मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक सीमित प्रतीत होता हो लेकिन प्रदर्शनकारी किसानों को सभी विपक्षी पार्टियों और उनके द्वारा शासित प्रदेशों से राजनैतिक समर्थन हासिल है। 

किसान संगठनों के बीच दरार दिखाई देना प्रतीत होने की खबरें आ रही है क्योंकि कई धड़े इस बात को लेकर राजी हैं कि यदि सरकार कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को न्यूनतम खरीद मूल्य बना देती है तो वे अपना प्रदर्शन वापस ले सकते हैं। दूसरी तरफ, अन्य किसान संगठन भी हैं जिन्होंने सितंबर माह में संसद द्वारा पारित तीनों कृषि कानूनों के पक्ष में सरकार को अपना समर्थन प्रदान किया है। गतिरोध को समाप्त करने के लिए सरकार और किसान संगठनों के बीच बातचीत की कोशिशें असफल हो चुकी है।  
क्या हैं ये कृषि कानून और वे क्या प्रदान करते हैं?

ये कानून हैं - कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम, कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवा करार अधिनियम और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम। पहली बार ये जून के महीने में अध्यादेश के रूप में लाए गए जिसके बाद संसद के मानसून सत्र में ध्वनि मत से इन्हें पारित कराया गया।

कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करता है जिसके तहत किसानों को अपनी उपज को कृषि उत्पाद मंडी समिति (एपीएमसी) के बाहर बेचने की अनुमति प्राप्त होती है। कोई भी लाइसेंस धारी किसानों से उनकी उपज आपसी सहमति से निर्धारित कीमत पर खरीद सकता है। कृषि उत्पादों के खरीद बिक्री की यह प्रक्रिया राज्य सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले मंडी कर से मुक्त होगी। 

कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवा करार अधिनियम किसानों को अनुबंध के आधार पर खेती करने और अपने उत्पादों को स्वतंत्र हो कर बेचने की अनुमति देता है।
आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम मौजूदा आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन है। यह कानून अब खाद्यान्नों, दालों, खाद्य तेलों और प्याज जैसी वस्तुओं को असाधारण परिस्थितियों (संकट काल) को छोड़ कर व्यापार करने की स्वतंत्रता देता है। 

सरकार ने इन कानूनों को प्रस्तुत करते हुए इसे वर्ष 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने और वैश्वीकरण से जोड़ने के कार्य के सदृश्य बताया है। इसने यह तर्क दिया है कि तीनों कानून किसानों के लिए नए अवसर पैदा करते हैं जिससे कि वे अपने कृषि उत्पादों के बदले अधिक आय प्राप्त कर सकें।

सरकार ने कहा है कि नए कानूनों से कृषि के क्षेत्र में और अधिक निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा जिससे इस क्षेत्र में बुनियादी ढांचे को मजबूत करने में मदद मिलेगी। एक के बाद एक आई सरकारों को कृषि और ग्रामीण इलाकों की आधार भूत संरचना के क्षेत्र में निवेश के दौरान वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ा है। ऐसा तर्क दिया जा रहा है कि खाद्य बाजार के भारत में तेजी से प्रगति करने के साथ साथ निजी व्यापारी कृषि कार्य को किसानों के लिए लाभदायक बना देंगे।

लेकिन किसान एमएसपी पर आश्वासन को लेकर चिंतित हैं
एमएसपी ही किसान आंदोलन के दौरान के गतिरोध का एक मुख्य मुद्दा बनकर उभरा है। किसानों के मन में यह धारणा बन गई है कि एपीएमसी के बाहर कृषि उत्पादों की खरीद बिक्री की अनुमति देने से आधिकारिक मंडियों में सरकारी एजेंसियों के द्वारा खरीद की प्रक्रिया में कमी आएगी।

प्रदर्शनकारी किसानों का कहना है कि ऐसी स्थिति में नए कानून एमएसपी आधारित व्यवस्था को गैर प्रासंगिक बना देगा और उन्हें कृषि कार्यों के ऐवज में कोई सुनिश्चित आय प्राप्त नहीं होगी। वर्तमान में सरकार लगभग दो दर्जन फसलों के लिए निश्चित एमएसपी की घोषणा करती है। हांलाकि धान, गेंहू और कुछ दालों को सरकारी एजेंसियां एपीएमसी मंडियों से खरीदती हैं।

विगत के वर्षों में एमएसपी के कार्य करने की व्यवस्था कुछ ऐसी हो गई है जिससे कि यह भारत भर के केवल मुट्ठी भर किसानों को ही लाभ पहुंचाता है। नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा वर्ष 2015 में गठित शांता कुमार कमेटी के मुताबिक देश भर के केवल 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी वाली व्यवस्था का लाभ प्राप्त होता है। 

उलझन यह है कि पंजाब और हरियाणा सहित कुछ राज्यों में एमएसपी वाली व्यवस्था वहां के किसानों के लिए काफी कारगर रही है। धान और गेंहू की 75 से 80 प्रतिशत की खरीदी इन्हीं दो राज्यों से होती है। इसलिए, यह डर कि नए कृषि कानूनों के लागू होने के बाद एमएसपी वाली व्यवस्था के चरमरा सकती है और ध्वस्त हो सकती है, पंजाब और हरियाणा के किसानों के लिए भावनात्मक मुद्दा बन गया है। और यही कारण है कि कृषि कानूनों के विरोध प्रदर्शन के दौरान यहां के किसान एपीएमसी और प्राइवेट मंडियों में खरीददारी के दौरान एमएसपी को अनिवार्य बनाने की मांग को लेकर सबसे अधिक मुखर हैं।

सरकार अनिच्छुक क्यों है?
एमएसपी वाली व्यवस्था राजनैतिक रूप से संवेदनशील और सरकार के लिए आर्थिक रूप से अव्यवहारिक है। कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत की एमएसपी वाली व्यवस्था सरकार द्वारा खाद्यान्नों की दुनिया की सबसे महंगी खरीद का कार्यक्रम है।

देश में लगभग 7 हजार एपीएमसी मंडियां हैं जहां से फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) सहित सरकारी एजेंसियां कृषि उत्पादों की खरीद करती हैं। हालांकि, व्यवहारिक तौर पर देखें तो फंड की कमी के कारण एफसीआई और अन्य एजेंसिया सिर्फ धान और गेंहू की खरीद करती हैं। एफसीआई इन खाद्यान्नों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) जीवन यापन करने वाले परिवारों को सस्ती दर पर बेचती है। इसे घाटे में चलने वाली या कल्याण उन्मुख काम कहते हैं। 

एमएसपी में लगातार वृद्धि होती है जिसके कारण एफसीआई को कृषि उपजों के लिए अधिक कीमत चुकाना पड़ता है और पीडीएस की दरों के पूर्व के समान रहने के कारण उसे अधिक नुकसान उठाना पड़ता है। अधिक खरीदी के कारण एफसीआई के गोदामों में खाद्यान्नों को रखने की जगह नहीं है और बढ़ती एमएसपी के कारण एफसीआई उसे लाभ के साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेच भी नहीं सकती। सरकार एफसीआई को हुए घाटे की प्रतिपूर्ति करती है और समय समय पर खाद्यान्नों को समझौते के तहत कुछ देशों को बेचती है।

मौजूदा एमएसपी वाली व्यवस्था के तहत सरकार का बढ़ता खाद्य बिल वार्षिक बजट में वित्तीय घाटे पर और अधिक दबाव डालता है। यही कारण है कि सभी सरकारें पिछले कई वर्षों से इस समस्या का समाधान तलाशने के लिए प्रयासरत रही हैं।

कृषि उत्पादों की मंडी के बाहर खरीद बिक्री की प्रक्रिया पर कर लगाने के राज्य सरकारों के अधिकारों के समाप्त होने के कारण कुछ राज्य भी नए कृषि कानूनों से नाखुश हैं। इस मद में विभिन्न राज्यों में लगने वाली फीस की अलग अलग दरें हैं जो 1 से 2 प्रतिशत से लेकर लगभग 8 से 9 प्रतिशत तक हैं। राज्यों का तर्क है कि पहले से ही उनके पास राजस्व संग्रह के सीमित स्त्रोत हैं और उन्हें अपने खर्चों को पूरा करने के लिए केंद्र पर निर्भर रहना पड़ता है। यह उन कारणों की व्याख्या करता है जिनके चलते राज्य, विशेषकर ऐसे राज्य जहां विपक्षी दलों की सरकारें हैं वे नए कृषि कानूनों के विरोध में जारी किसानों के आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं।

- प्रभाष के दत्ता 

(यह लेख इंडिया टूडे (अंग्रेजी संस्करण) में प्रकाशित लेख का हिंदी रूपांतरण है। मूल लेख को https://www.indiatoday.in/news-analysis/story/what-are-farm-laws-farmers... पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता है।)

फोटो साभारः साऊथ एशियन व्याइस 

लेखक के बारे में

अविनाश चंद्र

अविनाश चंद्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के सीनियर फेलो हैं। वे पब्लिक पॉलिसी मामलों के विशेषज्ञ हैं और उदारवादी वेब पोर्टल आजादी.मी के संयोजक हैं।

डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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