जनपथ की औरतें

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सिमरनजोत कौर

मैं एक बहुत मजबूत औरत हूँ और इस बाजार में किसी भी मर्द को बराबरी की टक्कर दे सकती हूँ क्योंकि मुझमें उत्साह की कमी नहीं है। लेकिन मेरे पास एक चीज़ नहीं है, मेरे पास उन अधिकारियों के सामने खड़े होने के लिए लोगों का समर्थन नहीं है, जो अपनी वर्दी का दुरुपयोग करते हैं और हमारा उत्पीड़न करते हैं।

लंबे समय से फुटकर विक्रेताओं को और सावर्जनिक जगहों पर उनकी मौजूदगी को अवैध और अवांछित करार दिया जाता रहा है। इसकी वजह फुटकर विक्रेताओं और उनके कल्याण से जुड़े खास कानूनों का अभाव हो सकता है। इससे जुड़े एक कानून को बनने में काफी साल लगे और आखिरकार 2014 में एक राष्ट्रीय कानून - फुटकर विक्रेता (आजीविका संरक्षण और फुटकर विक्रय विनियमन) अधिनियम अधिसूचित किया गया। लेकिन इस कानून को लेकर जागरुकता की कमी पर सवाल बना हुआ है। फुटकर विक्रेता एक समुदाय के तौर पर ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं और उनके पास बहुत कम संसाधन हैं। इससे वे ताकतवर पदों पर बैठे लोगों के उत्पीड़न का शिकार बनने के लिहाज से संवेदनशील बन जाते हैं।

हालात तब और बिगड़ जाते हैं जब किसी की लैंगिक पहचान उसे और संवेदनशील बना देती है और महामारी के प्रकोप के दौरान यह स्थिति और भी अलग हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार गरीब और वंचित तबके से आने वाली महिलाओं के महामारी के दौरान आजीविका छीनने की ज्यादा आशंका है क्योंकि वे आमतौर पर पुरुषों से कम कमाती हैं और उनकी बचत भी कहीं कम होती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि महामारी की वजह से पुरुषों की तुलना में ज्यादा महिलाएं भीषण गरीबी की चपेट में आ सकती हैं। इबोला महामारी के प्रकोप के पुराने अनुभव से देखा गया है कि पुरुष और उनकी आर्थिक गतिविधि तेजी से ढर्रे पर लौट आती है लेकिन महिलाओं को वापसी करने में कहीं ज्यादा लंबा समय लगता है। महिलाओं को न केवल आर्थिक रूप से बल्कि सामाजिक रूप से भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है क्योंकि उनपर घरों में बिना किसी पैसे के श्रम करने का बोझ पड़ता है और उन्हें इस तरह के समय में घरेलू हिंसा का ज्यादा सामना करना पड़ता है। इस लेख में हम जनपथ की औरतों की बात करेंगे जिन्होंने हमसे पिछले साल फुटकर विक्रय के दौरान आयी चुनौतियों को लेकर खुलकर बात की।

सेंटर फोर सिविल सोसाइटी ने महिला फुटकर विक्रेताओं के जीवन पर कोरोना विषाणु के असर को समझने के लिए मार्च 2021 में एक अध्ययन किया। हमने दिल्ली और जयपुर में महिलाओं से बातचीत की। उनसे पिछले एक साल में अपने जीवन से जुड़ी कहानियां साझा करने को कहा गया। इससे हैरान करने वाली एक सच्चाई सामने आयी जो सभी 40 महिलाओं की कहानियों का हिस्सा थी। यह सच्चाई पुलिस और स्थानीय प्रशासन द्वारा नियमों का खुलकर उल्लंघन करने से जुड़ी थी।

हमारे सामान जब्त किया जाना रोज की घटना है। हमें अपना सामान वापस पाने के लिए पैसे देने पड़ते हैं।

फुटकर विक्रेता अधिनियम, 2014 की धारा 19 के तहत जब्ती केवल उस स्थिति में की जा सकती है जब फुटकर विक्रेता 30 दिनों की नोटिस की अवधि खत्म होने के बाद बेदखली या स्थानांतरण के आदेशों का पालन करने में नाकाम रहता है। इसके बाद विक्रेता को स्थानीय प्राधिकरण के नामित व्यक्ति द्वारा विधिवत हस्ताक्षरित, जब्त किए जा रहे सामानों की सूची दी जानी चाहिए।

हमने महिलाओं के साथ अपनी बातचीत में पाया कि स्थानीय अधिकारी अकसर जब्ती का इस्तेमाल वसूली के हथकंडे के तौर पर करते हैं। अधिकारी अधिनियम का पालन नहीं करते और सामानों की अवैध जब्ती करते हैं तथा अधिनियम के अनुसार वे फुटकर विक्रेताओं के अधिकारों का हनन करते हैं। इसके अलावा एक फलते-फूलते व्यापार की खातिर फुटकर विक्रेता के लिए सामानों की उपलब्धता सबसे बुनियादी ज़रूरत होती है लेकिन सामानों की अनुचित जब्ती से इस उपलब्धता पर असर पड़ता है। इससे फुटकर विक्रेता भयाक्रांत होते हैं और इस वजह से पुलिस और स्थानीय अधिकारियों के बाजार में घुसने की भनक मिलते ही तेजी से भागते हैं अपना सामान लेकर छिप जाते हैं। इससे महिलाओं पर और असर पड़ता है जो अकेले ही अपने रेहड़ियां संभालती हैं। जब्ती के बाद विक्रेताओं को अपना सामान वापस पाने के लिए दर-दर की ठोकर खानी पड़ती है। इससे उनका कीमती समय और पैसा बर्बाद होता है, यह सुरक्षा संबंधी चिंताओं सहित कई कारणों से महिलाओं के लिए और मुश्किल होता है।

हम उनके नियमों से न चलें तो एनडीएमसी (नयी दिल्ली नगर निगम) हमपर गलत तरीके से जुर्माना लगाता है।

उन स्थानीय अधिकारों के हाथ में मनमाना जुर्माना एक और हथियार है जो अकसर फुटकर विक्रेताओं पर भारी जुर्माना लगाते हैं। फुटकर विक्रेता अधिनियम, 2014 की धारा 28 के तहत 2,000 रुपए के जुर्माने का ही प्रावधान है। लेकिन यह धारा स्थानीय प्राधिकरण को जुर्माने की राशि तय करने का भी अधिकार देती है। इससे मनमाने तरीके से जुर्माना लगाने और फुटकर विक्रेताओं के वित्तीय उत्पीड़न की गुंजाइश बनती है।

कई महिलाओं ने हमें बताया कि उन्हें केवल अपना सामान वापस पाने या बिना किसी अड़चन के काम करते रहने के लिए बहुत सारे पैसे देने को मजबूर किया गया। इन महिलाओं ने हमें बताया कि अगर वे अधिकारियों की बात नहीं मानतीं तो उन्हें अधिकारियों की अवज्ञा करने के लिए 4,000 रुपए तक का चालान भरना पड़ता। अगर फुटकर विक्रेता सच भी बोले तो अधिकारी इसे बदतमीज़ी का रूप दे देती है और बदले में उनपर जुर्माना लगा देते हैं। अपनी विक्रय की जगह, सामान खोने का डर और इस तरह की दूसरी आशंकाओं की वजह से फुटकर विक्रेता अधिकारियों से बिना कोई सवाल पूछे या अपने अधिकारों के लिए लड़े बिना अधिकारियों को गैरवाजिब पैसे देने पर मजबूर हो जाते हैं।

महिला फुटकर विक्रेताओं को न केवल कम आय और सामाजिक एवं कानूनी संरक्षण के अभाव जैसी अपने व्यापार से जुड़ी आम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है बल्कि अपने लिंग की वजह से उसे अन्य मुश्किलों से भी जूझना पड़ता है। वे स्वच्छता और स्वास्थ्य सुविधाओं की कम उपलब्धता की दिक्कतों का सामना करती हैं। वे चोरी और यौन शोषण जैसी सुरक्षा संबंधी समस्याओं का सामना करती हैं। उन्हें कई बार अपने निजी और पेशेवर जीवन में अलग-अलग तरह की भूमिकाएं निभानी पड़ती हैं जिससे उनकी परेशानी बढ़ती है। उन्हें व्यवस्था से जरूरी मदद नहीं मिलती।

इन समस्याओं के संभावित हलों में सबसे पहले लिंग के आधार पर वर्गीकृत आंकड़े जुटाना शामिल होगा जो महिला फुटकर विक्रेताओं पर अध्ययन के जरिए हासिल किए जा सकते हैं ताकि महिलाओं के सामने आने वाली खास चुनौतियों को तलाशा जा सके और उनकी पहचान की जा सके। इससे वे समस्याएं सामने लाने में मदद मिलेगी जिन्हें कमतर आंका जाता है, जिन्हें नजरअंदाज किया जाता है या फिर इस वजह से उनपर सही से ध्यान नहीं दिया जाता कि उनसे हमारी आबादी के अल्पसंख्यक वर्ग (महिलाएं) पर असर पड़ता है। इसके ठीक बाद नीतियों में उचित बदलाव और फुटकर विक्रेता अधिनियम, 2014 में संशोधन करने की कार्रवाई की जाएगी। एक सुझाव हो सकता है कि विक्रेताओं का उत्पीड़न करते पाए जाने पर अधिकारियों पर जुर्माना लगाने का प्रावधान पेश किया जाए। महिलाओं का उत्पीड़न करने पर और ज़्यादा जुर्माना लगाया जाए। यह अनुचित जब्ती, अवैध बेदखली और मनमाने तरीके से जुर्माना लगाने के मामलों को कम करने के लिहाज से एक कारगर उपाय होगा।

अगर महिलाओं को अपने और अपने कल्याण से जुड़ी चर्चा में शामिल कराने के लिए अलग-अलग मंच उपलब्ध कराए जाएं तो उससे भी इस समस्या का हल हो सकता है। यह अध्ययन करना सही होगा कि क्या राज्यों में काम करने वाली टाउन वेंडिंग कमिटी महिला आरक्षण की ज़रूरत का पालन कर रही हैं। अगर ऐसा है तो क्या वे महिलाओं को एक आवाज देकर उनके सशक्तिकरण के लिए काम कर रही हैं या फिर यह केवल प्रतीकात्मक है। क्योंकि सच्चाई यही है कि जब तक महिलाओं की राय नहीं सुनी जाएगी, समस्या ऐसे ही बनी रहेगी।

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सिमरनजोत कौर
डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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