विशेष लेख

लोकपाल कमेटी के बारे में जो आशंका थी, वह सच निकली| यदि जन-लोकपाल के सारे प्रमुख प्रावधानों को पांचों मंत्री मान लेते तो भला उन्हें मंत्री कौन मानता? उन्हें कोई साधारण राजनीतिज्ञ भी मानने को तैयार नहीं होता| कोई भी राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचार के समूल-नाश की बात सोच भी नहीं सकता| क्या भ्रष्टाचार किए बिना आज देश में कोई राजनीतिज्ञ बन सकता है? नेता इतने मूर्ख नहीं हैं कि वे जिस डाल पर बैठे हैं, उसी पर कुल्हाड़ी चलाएंगे| लोकपाल कमेटी में मंत्रियों ने जो रवैया अपनाया है, उन्हें वही शोभा देता है| वे लोकपाल की जगह धोकपाल लाना चाहते हैं

चार जून की रात दिल्ली के रामलीला मैदान में की गई पुलिस ज्यादतियों का विरोध करने वाले तमाम धर्माचार्य, योगाचार्य, संन्यासी और स्वयंसेवी संगठन अगर आने वाले समय में एक मंच पर एकत्र होकर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की मांगों का समर्थन करने का तय कर लें और गांव-गांव और शहरों में फैले अपने करोड़ों समर्थकों से सरकार का विरोध करने का आह्वान कर दें तो कैसी परिस्थितियां बनेंगी?
तब क्या कोई बहस करेगा कि इन गैर-राजनीतिक लोगों से सरकार को बातचीत नहीं करनी चाहिए? तब भी क्या वही तर्क दिए जाएंगे, जो प्रणब मुखर्जी

देशभर के शहरों में रहनेवाले गरीबों के आंकड़े जुटाने के लिए एक जून से सात माह का सर्वे शुरू हो चुका है. इसके साथ ही गरीबों की पहचान के मानदंड पर बहस भी फ़िर छिड़ गयी है. यह विडंबना ही है कि तमाम योजनाओं के बावजूद गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है.
शहरी गरीबों की गणना की खबरों के साथ ही गरीबी को लेकर जारी बहस फ़िर छिड़ गयी है. यह भारतीय लोकतंत्र की विडंबना ही है कि एक तरफ़ तो यह चुनावी प्रक्रिया में गरीबों की बढ़ती भागीदारी पर गर्व महसूस करती है, दूसरी तरफ़ इसी भागीदारी ने राजनीतिक और

19वीं सदी में तिलक युग से देश में राजनैतिक राष्ट्रीय भावना के नवजागरण का आरम्भ हुआ| उन दिनों बंगाल में भी राष्ट्रीयता के त्रि-आयाम का उद्भव हुआ| सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कर्मयोग, विपिन चंद्र और महर्षि अरविन्द का ज्ञान योग और रविंद्रनाथ की देशप्रेम साधना का भक्तियोग| स्व-देश या निज-देश की भावना उन्हें पारिवारिक विरासत से प्राप्त हुई थी| भारतवर्ष के जीवन आदर्श और सांस्कृतिक श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए देवेंद्रनाथ ‘तत्वबोधिनी’ पत्रिका के माध्यम से हमेशा देशवासियों को ईसाई मिशनरियों के धर्मान्तरण के खरते से आगाह करने की कोशिश

हम यह तो जानते ही हैं कि हमारे मौजूदा सिस्टम में कहीं कुछ गड़बड़ है। इसके बावजूद बदलाव हमें असहज कर देता है। अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के विरुद्ध चलाए गए आंदोलन में हम एकजुट हुए और आंदोलन को सफल बनाया। लेकिन जब हम भ्रष्टाचाररोधी लोकपाल बिल का मसौदा बनाने बैठे तो अंतर्विरोध सामने आने लगे।
ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों पर निजी टिप्पणियां की गईं, दुर्गति के अंदेशे लगाए जाने लगे और यह भी कहा गया कि स्वयं लोकपाल भी तो भ्रष्ट हो सकता है। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन को लोकतंत्र पर एक आक्रमण

पिछले साल ‘सबल भारत’ के आंदोलन ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ ने देश में कुछ ऐसी जागृति फैलाई कि सरकार को जनगणना से जाति को बाहर करना पड़ा। इस आंदोलन के पास न जन-शक्ति थी, न धन-शक्ति और न ही मीडिया-शक्ति। सिर्फ विचार-शक्ति ने हमारे राजनीतिक नेताओं को जरा हिलाया, जगाया और दोबारा सोचने पर बाध्य किया। हड़बड़ी में किए गए इस निर्णय को उन्होंने वापस लिया और केंद्र सरकार ने उन सहयोगी दलों के आगे घुटने नहीं टेके, जो अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए इस देश को जातिवादी खाई में गिराने का संकल्प ले चुके थे। सरकार की