देश की शिक्षा व्यवस्था पर बेबाकी से राय प्रकट कर रहे हैं प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के नेता दीपक मिश्रा

हाल ही में आजादी.मी ने स्कूली शिक्षा से जुड़े विषय पर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता और मंडेला पुरस्कार से सम्मानित दीपक मिश्रा से लखनऊ स्थित उनके आवास पर विस्तारपूर्वक बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के कुछ प्रमुख अंश..

प्रश्नः उत्तर प्रदेश की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को आप किस प्रकार देखते हैं?
उत्तरः
 हमारे देश की और विशेषकर उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी खामी है। यह असमान और दोहरी (प्रवृत्ति वाली) है। डा. लोहिया ने महात्मा गांधी की प्रेरणा से एक नारा दिया था जिसका मूल था कि ‘राष्ट्रपति का बेटा हो या भंगी की संतान, सबकी शिक्षा एक समान’। क्या आज सबकी शिक्षा एक समान है? आज जहां कलेक्टर का बेटा पढ़ता है वहां कलेक्टर के चपरासी का बेटा नहीं पढ़ सकता। इस प्रकार जब शिक्षा असमान होगी तो जब बच्चे बड़े होंगे तो वैसे ही होंगे। इसीलिए हमारी शिक्षा प्रणाली समानता के लक्ष्य से मीलों दूर है। शिक्षा एक चिराग है लेकिन आज दुर्भाग्य यह है कि इन चिरागों से रौशनी कम और धुएं ज्यादा होने लगे हैं। उत्तर प्रदेश की स्थिति इस मामले में और भी खराब है। यहां कुछ स्कूल तो ऐसे हैं जो एयरकंडीशंड हैं और कंप्यूटर आदि से लैस सर्वसुविधा युक्त हैं। वहां प्रत्येक विषय के लिए अलग अलग विशेषज्ञ अध्यापक हैं। तो वहीं अनेक स्कूल ऐसे भी हैं जहां बच्चे आज भी घर से बोरा लाकर बैठते हैं। जब छात्र ऐसे स्कूलों के बाहर निकलते हैं तो वही बोरे उनके कंधों और पीठ पर लद जाते हैं और वे मजदूर बन जाते हैं जबकि महंगे सुविधासम्पन्न स्कूलों से निकलने वाले बच्चे कलेक्टर और कप्तान बनते हैं। यह समाज में असमानता को ही बढ़ाता है।

प्रश्नः अक्सर सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल होती है जिसमें दिखाते हैं कि आलीशान भवनों वाले निजी स्कूलों के अध्यापक छोटे और सामान्य से मकान में रहते हैं जबकि जर्जर और टूटी फूटी बिल्डिंग वाले सरकारी स्कूलों के अध्यापकों के घर शानदार होते हैं?
उत्तरः
 देखिए, सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की तनख्वाह कम हो ऐसा तो मैं नहीं कहूंगा लेकिन एक नियम और निगम ऐसा बनना चाहिए जिससे निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी बेहतर वेतन सुनिश्चित हो सके। निजीकरण की व्यवस्था को भी आप राष्ट्र और देश से अलग नहीं कर सकते। ऐसा नहीं हो सकता कि प्राइवेट स्कूलों से अरबों कमाने वाले लोग अपने स्कूलों में पढ़ाने वाले लोगों को अपनी आमदनी का छटांक बराबर भी न दें।

प्रश्नः जब हम निजी शिक्षा व्यवस्था की बात करते हैं तो हमारे जेहन में अंग्रेजी माध्यम के बड़े आलीशान भवन वाले स्कूलों की छवि उभर कर आती है। जबकि देश के कुल निजी स्कूलों के लगभग 80 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जो पड़ोस के गली मोहल्लों में संचालित होते हैं और 200 से 500 रुपये प्रतिमाह शुल्क लेते हैं। यूपी मे तो आज भी 50 रुपये शुल्क लेने वाले स्कूल हैं। ऐसे स्कूल चल रहे हैं क्योंकि इनकी जरूरत है। कुछ एक्सट्रीमिस्ट ऐसे होते हैं जो चाहते हैं कि निजी स्कूलों को बंद कर देना चाहिए। सिर्फ सरकारी स्कूल ही हों। आपकी इस पर क्या राय है?
उत्तरः
 मैं इस विचार को अपने राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षणिक अनुभवों और अध्ययनों के आधार पर पूर्णतया खारिज करता हूं। न तो पूरी तरह से सरकारी स्कूल होने चाहिए जहां कोई नियम कानून नहीं है जिसे मर्जी जब चाहे पढ़ाए, जब चाहे घर जाए और न ही पूरी तरह से निजीकरण होना चाहिए जहां एक शिक्षक, शिक्षक कम और प्रबंधन का एक मशीनवत नौकर अधिक हो। दोनों ठीक नहीं है। दोनों के बीच का एक बेहतर रास्ता निकाला जाना चाहिए। आप ध्यान से देखिएगा 50 रूपये प्रतिमाह वाला स्कूल संचालक भी अधिकारियों को 5 लाख रूपये रिश्वत देकर स्कूल चलाता होगा। ऐसा कानून बनना चाहिए कि अधिकारी रिश्वत लेकर स्कूल चलने की अनुमति न दे सकें।

प्रश्नः क्या आप मानते हैं कि सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में उत्तरोत्तर कमी आई है और यही वजह है कि लोग एक रोटी कम खाकर भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं?
उत्तरः 
सभी मां-बाप की ख्वाहिश होती है कि जो तालीम वे हासिल नहीं कर सके, उनका बच्चा उसे हासिल करे। इसके लिए वे दो रोटी कम भले ही खाएंगे लेकिन अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में अवश्य भेजेंगे। अगर सरकारी स्कूलों में अच्छी व्यवस्था होती तो अभिभावक निजी स्कूलों में अपने बच्चों को क्यों भेजते? आज आजादी के दशकों बाद जब हम अमृत महोत्सव मना रहे हैं तब भी हम ऐसे मौलिक विषय पर बात कर रहे हैं, क्या यह शर्म की बात नहीं है। आज बात तो ये होनी चाहिए कि और अधिक गुणवत्ता वाली उच्च शिक्षा कैसे प्रदान करें, लेकिन हम आज भी उसी प्राथमिक सवालों में उलझे हुए हैं। आज भी स्त्री पुरुष की साक्षरता में अंतर देश में आजादी के समय काल के बराबर ही है।

प्रश्नः आरटीई आने के बाद से स्कूलों में नामांकन की दर तो बढ़ी है पर शिक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ है। आज भी सरकारी स्कूलों के 8वीं कक्षा में पढ़ने वाले बहुत सारे छात्र दूसरी और तीसरी कक्षा की किताबों को नहीं पढ़ पाते।
उत्तरः
 नामांकन का क्या है? तीन कमरों का एक स्कूल, वही दो टीचर, वही एक चपरासी और एक प्रिंसिपल। उसी कक्षा में जहां 30 बच्चे पढ़ते थे उसी कक्षा में 300 बच्चे पढ़ रहे हैं। कहां से गुणवत्ता बढ़ेगी। निजी स्कूलों में भी ऐसा ही चल रहा है। गरीबों के लिए आरक्षित सीटों पर गलत दस्तावेजों के आधार पर अमीरों के बच्चे दाखिला लेते हैं। गरीबों में जागरूकता की कमी है और इसलिए आरटीई का फायदा अमीर उठा लेते हैं। शराब बेचने वाला व्यक्ति जब स्कूल चलाएगा तो गुणवत्ता की बजाए अपने मुनाफे पर ध्यान केंद्रीत करेगा।

प्रश्नः लेकिन ज्वलंत प्रश्न ये है कि छात्र, शराब व्यवसायियों के द्वारा संचालित स्कूलों में जो कि मुनाफे के लिए ही बने हैं, उन स्कूलों में जाने को मजबूर क्यों होते हैं? दूसरी बात यदि अभिभावकों के पास पैसे हों तो वे क्या अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजना पसंद करेंगे?
उत्तरः
 आज भी उस तंत्र को विकसित नहीं किया जा सका है जहां सरकारी अध्यापकों से अच्छा काम कराया जा सके और प्रतिभाओं को उचित स्थान दिलाया जा सके। इसके लिए एक स्वतंत्र निगमन की आवश्यकता है जो इस पर ध्यान रखे।

प्रश्नः आप शिक्षा के क्षेत्र के लिए ट्राई के जैसे स्वतंत्र और स्वायत्त निगम की स्थापना की बात को स्वीकार करते हैं!
उत्तरः
 जी, आज आवश्यकता एक ऐसे नियमन और निगमन की है जो सभी प्रकार के स्कूलों पर समान रूप से निगाह रखे और किसी भी प्रकार की गड़बड़ी की स्थिति में उनपर रोक लगा सके और उनका रजिस्ट्रेशन रद्द कर सके। दरअसल, सरकारी स्कूलों में जो एक बार नियुक्त हो जाता है तो वह मानकर चलता है कि अगले 30 सालों तक उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा। बहुत अधिक होगा तो एक दो महीने के लिए वेतन रुक जाएगा वह भी निकल जाएगा। स्कूलों का बाहर से रंग रोगन हो जाता है लेकिन अंदर कोई बदलाव नहीं होता..

इस बातचीत को विस्तार से देखने के लिए क्लिक करें.. https://youtu.be/oOFCMWP7AMk

लेखक के बारे में

अविनाश चंद्र

अविनाश चंद्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के सीनियर फेलो हैं। वे पब्लिक पॉलिसी मामलों के विशेषज्ञ हैं और उदारवादी वेब पोर्टल आजादी.मी के संयोजक हैं।

डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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