फ्रेडरिक ऑगस्ट हायक
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म 1899 – निधन 1992]
बीसवीं सदी के अर्थशास्त्रियों में से पुनर्जीवन पुरुष के रूप में किसी का नाम लिया जाता है तो वह है फ्रेडरिक हायक. उनका राजनैतिक सिद्धांत, मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में मौलिक योगदान रहा है. एक ऐसा क्षेत्र जहां मुख्य सिद्धांत के विस्तार की आड़ में विचारों की प्रासंगिकता कहीं खो जाती है. उनका योगदान इतना असाधारण है कि जिसे लोग आज भी 40 साल से भी ज्यादा होने के बावजूद पढ़ते हैं. अर्थशास्त्र के कई विद्यार्थी उनके 30 और 40 के दशक के लेख जिनका विषय अर्थशास्त्र और ज्ञान ही रहता था, आज भी पढ़ते हैं. जो उनके वरिष्ठजन आज तक समझ नहीं पाए हैं. इसमें कोई आश्चर्य नहीं की कुछ महत्वपूर्ण अर्थशास्त्री अभी भी उनके लेख पढ़ते-समझते होंगे और वर्ष 2050 तक पढ़ते रहेंगे.
अध्ययन का जो विषय आज ऑस्ट्रियन अर्थशास्त्र के नाम से जाना जाता है, हायक उसके श्रेष्ठ अधिवक्ता थे. असल में ऑस्ट्रियन स्कूल के वही एकमात्र सदस्य थे, जिनका जन्म भी ऑस्ट्रिया में हुआ और वे पले-बढ़े भी वहीं पर. पहले विश्वयुद्ध के बाद विएना की यूनिवर्सिटी से हायक ने विधि और राजनीति विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की. बाद में, कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों जैसे गॉटफ्राएड हैबर्लर, फ्रिट्ज मैचलप और मॉर्गन्स्टर्न के साथ मिलकर लुडविग वॉन मीज़ीस की निजि सेमिनार में शामिल हुए जो कीन्स के “कैम्ब्रिज सर्कस” के आस्ट्रियाई संस्करण के समक्ष था,
1927 में हायक ऑस्ट्रियन इंस्टीट्यूट ऑफ बिजनेस साइकल रिसर्च के निदेशक बने. 1930 के शुरुआती समय में लियोनेल रॉबिन्स के आमंत्रण पर हायक लंडन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की फैकल्टी में शामिल हो गए, जहां वे 18 साल रहे. 1938 में वे ब्रिटिश नागरिक बन गए. 1920 से लेकर 1930 तक हायक ने ज्यादातर ऑस्ट्रिया के कार्य-चक्र (बिज़नेस-साइकल्स), पूंजी सिद्धांत (कैपिटल थ्योरी) और आर्थिक सिद्धांत (मॉनेटरी थ्योरी) पर ही काम किया.
हायक हमेशा इन तीनों सिद्धांतों में एक संबंध पाते थे. उनके मतानुसार किसी भी अर्थव्यवस्था की मुख्य परेशानी थी- लोगों के साथ इन तीनों के बीच का तालमेल. एडम स्मिथ की तरह उन्होंने भी इस ओर ध्यान खींचा की मूल्य प्रणाली और मुक्त बाजार लोगों के बीच का समन्वय स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. हालांकि यह समन्वय किसी का मुख्य अभिप्राय नहीं होता. हायक के अनुसार बाजार एक स्वाभाविक और स्वैच्छिक आदेश है.
स्वाभाविक रूप से हायक का मतलब था अनसोचा. बाजार को किसी ने डिजाइन नहीं किया बल्कि वह लोगों के काम-काज के साथ-साथ अपना आकार लेता गया. लेकिन बाजार प्रत्यक्ष रूप से काम नहीं करता. बाजार गिरने का लोगों की योजनाओं, इसका एक समान रूप से न चलना और उसके कारण उत्पन्न होने वाली बेरोजगारी जैसे विषयों का हायक के सामने हमेशा एक बड़ा सवाल रहता था. उनके अनुसार एक कारण सेंट्रल बैंक द्वारा पैसों की आपूर्ति बढ़ाना था. “प्राइसेस ऐंड प्रोडक्शन” में उनका तर्क था कि ऐसी बढ़त ब्याज दर को नीचे गिरा सकती थी जोकि उधार (क्रेडिट) को कृत्रिम रूप से कम कर सकता था. व्यापारी तभी पूंजी निवेश करते जब उन्हें समझ में आ जाता कि उन्हें क्रेडिट मार्केट से गलत संकेत नहीं मिल रहे हैं. पर हायक का मानना था कि पूंजी निवेश समजातीय (होमोजिनस) नहीं होते हैं. जिस तरह राजकोषीय बिल से ज्यादा लंबी अवधि के बॉण्ड्स पर ब्याज दर का असर पड़ता है उसी तरह छोटी अवधि के निवेश के बजाए लंबी अवधि के निवेश ब्याज दर से ज्यादा प्रभावित होते हैं. इसलिए उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि अस्वाभाविक ब्याज दर न केवल निवेश की दर बढ़ाती है बल्कि गलत निवेश का भी कारण बनती है. यानी लंबी अवधि की परियोजनाओं में ज्यादा निवेश बजाए छोटी अवधि के निवेश किए जाएं. उन्होंने तर्क दिया कि तेजी (बूम) मंदी (बस्ट) में बदलनी चाहिए. हायक की नजरों में मंदी स्वस्थ और जरूरी रिएडजस्टमेंट थी. उनका तर्क था कि मंदी से बचने का तरीका था, तेजी से बचना. जिसके कारण मंदी आती थी.
हायक और कीन्स एक ही समय में दुनिया के मॉडल बना रहे थे. वे दोनों एक-दूसरे के विचारों से वाकिफ थे और अपने मतभेदों की लड़ाई लड़ रहे थे. अधिकतर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि कीन्स की जनरल थ्योरी ने यह लड़ाई जीती. हायक ने मरते दम तक इस थ्योरी में विश्वास जताया न की ऑस्ट्रियन्स स्कूल के अन्य सदस्यों ने. हायक का यह मानना था कि बेरोजगारी से लड़ने के लिए कीन्सीयन पॉलिसियां अप्रत्यक्ष रूप से मुद्रास्फीति का कारण बनेंगी और सेंट्रल बैंक को तेजी से मनी सप्लाय बढ़ाना पड़ेगा. जिसकी वजह से मुद्रास्फीति ऊंची से ऊंची बढ़ती जाएगी. हायक के यह विचार जो उन्होंने 1958 में व्यक्त किए थे अब मुख्यधारा के अर्थशास्त्री स्वीकारते हैं. (अधिक जानकारी के लिए पढ़ें और देखें फिलिप्स कर्व)
तीस के दशक के आखिरी दौर में और शुरुआती 40 के दशक में हायक का ध्यान इस बात पर गया कि क्या समाजवादी नियमन काम करेगा? उनका तर्क था कि नहीं करेगा. समाजवादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार केंद्रीय योजना इसलिए काम की थी क्योंकि उनका सोचना था कि प्लानर्स आर्थिक आंकड़े देख कर साधन का उपयोग करेंगे. परंतु हायक ने बताया कि आंकड़े दिये नहीं जाते. उनका कोई अस्तित्व नहीं होता और वह किसी एक व्यक्ति के दिमाग में नहीं रह सकते. बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को किसी विशेष संसाधन के बारे में ज्ञान होता है और उस संसाधन को उपयोग में लेने के संभावित तरीके पता होते हैं जो एक केंद्रीय योजनाकार को नहीं पता हो सकते. मुक्त बाजार की खूबी यह है कि वह लोगों को ऐसी जानकारी उपयोग में लाने की आज़ादी देता है जो केवल उनके पास है. संक्षेप में बाजार की प्रक्रिया ही आंकड़ों को जन्म देती है. बिना बाजार के आंकड़ों का लगभग कोई अस्तित्व नहीं है.
मुख्यधारा के अर्थशास्त्री और यहां तक की समाजवादी भी अब हायक के तर्क को स्वीकारते हैं. हारवर्ड के अर्थशास्त्री जैफरी सैश का कहना है, “जब भी आप किसी अर्थशास्त्री से पूछेंगे कि निवेश के लिए अच्छी जगह कौन सी है, कौनसा उद्योग फलने-फूलने वाला है, स्पेशलाइजेशन कहां आने वाला है तो ट्रैक रिकॉर्ड काफी अप्रिय है. अर्थशास्त्री जमीनी हकीकत से जुड़े तथ्य एकत्रित नहीं करते जोकि व्यापारी करते हैं. हर बार जब पोलैंड पूछते हैं कि हम क्या उत्पन्न कर सकते हैं, मैं कहता हूं मुझे पता नहीं.”
1944 में हायक ने समाजवाद पर भी भिन्न कोण से प्रहार किया. ऑस्ट्रिया में अपनी अनुकूल परिस्थितियों में हायक ने बीस के दशक और शुरुआती तीस के दशक के जर्मनी को बहुत करीब से देखा और फिर ब्रिटेन चले गए. वहां उन्होंने देखा कि काफी ब्रिटिश समाजवादी उन्हीं नीतियों का समर्थन कर रहे हैं जो उन्होंने बीस के दशक में जर्मनी में देखी थीं. उन्होंने यह भी देखा कि नाज़ी असल में राष्ट्रीय समाजवादी हैं मतलब कि वे राष्ट्रवादी भी हैं और समाजवादी भी. इसलिए हायक ने ‘‘दि रोड टु सर्फडम’’ किताब लिखी जिसमें उन्होंने ब्रिटिश नागरिकों को समाजवाद के खतरों से सचेत किया. उनका मूल तर्क था कि अपने आर्थिक जीवन को सरकार जो नियंत्रित करती है वह एक दल वाद को उत्पन्न करती है- सरकार का लोगों के जीवन पर पूर्ण नियंत्रण. हायक ने लिखा, “आर्थिक नियंत्रण महज इंसान के जीवन के एक क्षेत्र का नियंत्रण नहीं है जिसे बाकी से अलग किया जा सके. बल्कि वह हमारे सभी अंत के साधनों का नियंत्रण है.”
आश्चर्यजनक रूप से जॉन मेनार्ड कीन्स ने हायक की इस किताब की जम कर तारीफ की. किताब के कवर पर कीन्स का कोट डाला गया जिसमें उन्होंने लिखा, “मेरे विचार से यह किताब शानदार है... नैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से मैं अपने आप को उसके तारतम्य में पूरा का पूरा पाता हूं. और ना केवल मैं उससे सहमत हूं बल्कि पूरी तरह सोच-समझ कर सहमत हूं.”
हालांकि हायक ने ‘‘दि रोड टु सर्फडम’’ केवल ब्रिटिश पाठकों के लिए लिखी थी पर वह अमेरिका में भी अच्छी बिकी. रीडर्स डाइजेस्ट ने उसे, स्वाभाविक रूप से, सारगर्भित रूप में प्रकाशित किया. उस किताब से हायक ने अपने आप को विश्व के मार्गदर्शक श्रेष्ठ उदारवादी के रूप में स्थापित किया. कुछ वर्षों बाद मिल्टन फ्रीडमेन, जॉर्ज स्टिगलर और अन्य के साथ मिलकर उन्होंने मॉन्ट पेलिरन सोसाइटी बनाई ताकि सारे उदारवादी हर दो साल में मिल सकें और मानसिक रूप से नैतिक सहारा दे सकें, उस केस के लिए जो वे लगभग हार चुके थे.
1950 में हायक शिकागो यूनिवर्सिटी के सामाजिक और नैतिक विज्ञान के प्रोफेसर बन गए जहां वे 1962 तक रहे. उस दौरान उन्होंने कार्यप्रणाली, मनोविज्ञान और राजनैतिक सिद्धांत जैसे विषयों पर काम किया. कार्यप्रणाली में उन्होंने धार्मिक आंदोलन पर प्रहार किया. भौतिक विज्ञान के तरीकों की सामाजिक विज्ञान में जो नकल की जाती है उस पर उनका तर्क था कि चूंकि सामाजिक विज्ञान (अर्थशास्त्र को सम्मिलित करते हुए) में व्यक्तियों के बारे में पढ़ा जाता है न कि वस्तुओं के बारे में तो ऐसा तभी हो सकता है जब मानवीय उद्देश्य पर पूरा ध्यान दिया जाए. 1870 में ऑस्ट्रियन स्कूल ने पहले ही बता दिया था कि एक वस्तु की कीमत उसी बात पर निर्भर करती है कि उन्होंने किस कुशलता से मानवीय उद्देश्य को पूरा किया.
हायक का सामाजिक वैज्ञानिकों को भी यही आग्रह था कि वे मानवीय उद्देश्यों का ज्यादा हिसाब रखें. इस विषय पर हायक के विचार “दि काउंटर- रिवॉल्युशन ऑफ साइंसः स्टडीज़ इन दि अब्यूज़ ऑफ रीज़न” में दिए गए हैं. मनोविज्ञान में हायक ने “दि सेंसरी ऑर्डरः एन एन्क्वायरी इन्टू दि फाउंडेशन्स ऑफ थ्योरीटिकल साइकोलॉजी” लिखी है.
राजनैतिक सिद्धांत में हायक ने सरकार की उचित भूमिका पर अपने विचार अपनी पुस्तक “दि कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ लिबर्टी” में व्यक्त किए हैं. उन्होंने आज़ादी के सिद्धांतों पर चर्चा की और उन सिद्धांतों पर अपने नीतिगत प्रस्ताव दिए. प्रगतिशील करारोपण के बारे में उनकी मुख्य आपत्ति यह नहीं थी कि वह अक्षमता का कारण बनता है पर यह कि वह कानून के समक्ष समानता को भंग करता है. किताब के पश्चलेख (पोस्टस्क्रिप्ट) में “व्हाइ आइ एम नॉट अ कंज़र्वेटिव?” हायक ने अपने श्रेष्ठ उदारवाद को अनुदारवाद से अलग बताया. अनुदारता को अस्वीकार करने के उनके कारणों में से एक था नैतिक और धार्मिक आदर्श अवपीड़न या क्षरण के पात्र नहीं हैं और अनुदारवाद वैश्विकरण का विरोधी है और तीव्र राष्ट्रवाद का अधोमुख है.
1962 में हायक आर्थिक नीति के एक प्रोफेसर के रूप में यूरोप लौटे और पश्चिम जर्मनी के ब्रिसगाउ स्थित फ्रीबर्ग यूनिवर्सिटी में उन्होंने काम किया जहां वे 1968 तक रहे. 9 साल बाद से रिटायरमेंट तक उन्होंने साल्जबर्ग यूनिवर्सिटी, ऑस्ट्रिया में दीक्षा दी. सत्तर के दशक की शुरुआत में उनके प्रकाशनों की गति कुछ धीमी हो गई. 1974 में गुन्नार मिर्डल के साझेदार नोबेल पुरस्कार विजेता बने. मुद्रा संबंधी उनके विचारों और व्याख्यात्मक “Interdependence of economic, social and institutional phenomenon”. इस पुरस्कार ने उनमें एक नया जीवन फूंक दिया और उन्होंने फिर से अर्थशास्त्र और राजनीति दोनो ही में प्रकाशन शुरू कर दिया.कई लोग उम्र के साथ रूढ़िवादी हो जाते हैं पर हायक और मौलिक होते गए. सारा जीवन केंद्रीय बैंकिंग के पक्ष में रहने वाले हायक सत्तर के दशक में मुद्रा की विराष्ट्रीयकरण की पैरवी करने लगे.
उनका तर्क था कि निजी उपक्रम जो विभिन्न मुद्राएं जारी करते हैं, को उनकी खरीदने की क्षमता को बरकरार रखने के लिए प्रोत्साहन मिलना चाहिए. ग्राहक को प्रतिस्पर्धी मुद्राओं में से अपनी पसंद की मुद्रा चुनने का अधिकार मिलना चाहिए. पूर्वी यूरोप में साम्यवाद के पतन के साथ कई आर्थिक सलाहकारों ने हायक की मुद्रा प्रणाली को फिक्स्ड रेट मुद्रा का अच्छा विकल्प माना.
89 वर्ष की उम्र में भी हायक अपनी रचनाएं लिख रहे थे. उनकी किताब “दि फेटल कन्सीट” में उन्होंने बुद्धिजीवियों के समाजवाद के प्रति आकर्षण को समझाने के लिए गहरी अंतर्दृष्टि दिखाई और उनके विश्वास के आधार का खंडन किया.
फ्रेडरिक हायक की कुछ प्रमुख कृतियां
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