मीनू मसानी

मीनू मसानी

एक उदारवादी का जन्म

- एस.वी. राजू

8 जून 1959 के अखबारों में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि एक दिन पहले ही मद्रास में हुई जनसभा में सी. राजगोपालाचारी ने नए राजनैतिक दल स्वतंत्रता पार्टी की स्थापना की घोषणा की थी। इस बैठक को संबोधित करने वाले अन्य विशिष्ट जनों में प्रो. एन.जी. रंगा, वी.पी. मेनन और एम.आर. मसानी शामिल थे। इस रिपोर्ट को पढ़ते हुए मैं (उस समय मैं 29 साल का था) इस बात का बामुश्किल ही एहसास पा सका कि एम.आर. मसानी के साथ शुरू होने जा रहा यह साथ अगले चालीस साल तक चलने वाला है।

इस प्रेस रिपोर्ट के छह माह बाद, मैं स्वतंत्रता पार्टी के बंबई स्थित मुख्यालय में बतौर ऑफिस सेक्रेटरी काम कर रहा था और मुझे पार्टी के महासचिव मीनू मसानी को रिपोर्ट करनी होती थी। मसानी के संग मेरा साथ विभिन्न चरणों में रहा। पहले, स्वतंत्रता पार्टी के मुंबई स्थित मुख्यालय में बतौर ऑफिस सेक्रेटरी, बाद में एक्जीक्यूटिव सेक्रेटरी (कार्यकारी सचिव) रहा; इसके बाद मसानी की कंसल्टेंसी फर्म पर्सनल ऐंड प्रॉडक्टिविटी सर्विसेस में मैनेजमेंट कंसल्टंट रहा; और आखिरकार उनके द्वारा संस्थापित विभिन्न संस्थाओं में फेलो रहकर विभिन्न समस्याओं को मात देने वाले अहम खिलाड़ी की भूमिका निभाई, और इनकी संख्या काफी थी!

मसानी किस तरह के इनसान थे? उनकी ऐसी कौन-सी विशेषताएं थीं जिनके चलते उन्हें ऐसी पुस्तक का हिस्सा बनाया गया जोकि उन लोगों के बारे में है, जो उस बात के लिए पूरे साहस के साथ खड़े हुए जिसमें उनका यकीन था, बेशक इसके मायने ताकतवर संस्था से टक्कर लेने या बिना किसी समर्थन के अकेले आगे बढ़ना ही क्यों न हो? पहले प्रश्न का जवाब इस निबंध की विषय सामग्री है। दूसरे प्रश्न का जवाब, पाठक उस शख्स के बारे में दी गई जानकारी को पढ़कर खुद ही फैसला करेंगे, जिसे मेरे विचार में उन बहुत कम लोगों में शामिल किया जा सकता है, जिन्होंने आज़ादी के बाद भारत में उदारवाद की आत्मा को जिंदा रखा।

एलएसई एवं लास्की का प्रभाव

सार्वजनिक जीवन में मसानी का प्रवेश कानूनी व्यवसाय, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स तथा मिडल टैंपल के माध्यम से हुआ था जो राजनीति में उनके कैरियर के लिए प्रारंभिक प्रशिक्षण-मैदान साबित हुए थे हालांकि वे एक वामपंथी और सोवियत विचारधारा के थे। मैंने अनेक भारतीय नेताओं की तुलना में जो अपने जीवन में इन बातों को सीखने को महत्व नहीं देते हैं, अपने स्कूल के दिनों में समितियों, चुनावों, आयोगों तथा दलगत राजनीति के बारे में संभवत: अधिक सीखा है, तथा हमारे बाद में आने वाले समाजवादी दिनों में भाषणों तथा लेखों में, मैं शायद ही अपने किशोरावस्था के उद्गारों को सुनने में कभी चूका होऊंगा।''

एलएसई में उनके एक साथी छात्र वी.के. कृष्णा मेनन थे जो उस समय के एनी बेसेंट के अनुयायी थे तथा मसानी के मानदंडों के अनुसार एक ''नरम पंथी'' थे। प्रारंभिक और एक-साथ बिताए गए एक छोटे समय के पश्चात, जब मसानी उनके समर्थक थे, उनका रिश्ता विरोध में बदल गया तथा मसानी के अपनी शिक्षा पूरी करके लंदन से आने से पूर्व ही ऐसा बदलाव आ गया था। आश्चर्यजनक रूप से वे मेनन से काफी दूर हो गए, उनके साम्यवादी विचारों की वजह से नहीं, बल्कि उनकी ओर से एक सच्चा साम्यवादी न बनने की वजह से! कृष्णा मेनन आगे चलकर ब्रिटिश लेबर पार्टी के सदस्य बने तथा फिर ब्रिटिश साम्यवादी पार्टी में चले गए, जिसके वे कार्डधारक सदस्य थे मेनन को नेहरू से मिलाने का 'श्रेय' मसानी को जाता है। नेहरू और मेनन बहुत गहरे मित्र बन गए। स्वतंत्रता के पश्चात मेनन को इंग्लैंड में भारतीय उच्चायुक्त बना दिया गया, और बाद में वे भारत के रक्षा मंत्री बने। यह एक विडंबना ही है कि अनिच्छुक मन से नेहरू को मेनन के दोनों ही पदों का कार्यकाल पूरा होने से पूर्व ही उन्हें त्यागपत्र देने के लिए कहना पड़ा। उन्हें उच्चायुक्त के पद से तब हटना पड़ा जब वे प्रसिद्ध 'जीप घोटाले' में शामिल पाए गए तथा रक्षा मंत्री का पद उन्हें तब छोड़ना पड़ा जब उन्हें साम्यवादी चीन के साथ 1962 के युद्ध में शर्मनाक हार के लिए उत्तरदायी माना गया।

कहा जाता है कि लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैरॉल्ड लास्की विशेष रूप से अपने भारतीय छात्रों पर पर्याप्त प्रभाव का प्रयोग किया करते थे। जबकि मसानी भी इसका अपवाद नहीं थे क्योंकि वे भी उन्हीं के कार्यकाल के दौरान वहां आए थे, परंतु जल्द ही उन्होंने लास्की की सोच में विरोधाभास को देख लिया और वे वहां से चले गए। परंतु लास्की ने जवाहरलाल नेहरू तथा कृष्णा मेनन जैसे अन्य विद्यार्थियों पर गहरा प्रभाव छोड़ा। संभवत: एक कारण यह भी था कि नेहरू के शासन के दौरान स्वतंत्र भारत में जो नीतियां अपनाई गईं, वे राज्यनियंत्रणवादी और उभयभावी प्रकृति की थीं जिनमें घोषित सोवियत-समर्थक नीतियां भी शामिल थीं।

सोवियत संघ के प्रशंसक

लास्की से प्रभावित होकर तथा एलएसई में अपने अध्ययन के दौरान, मसानी एक समूह में शामिल हो गए जो वर्ष 1927 में सोवियत संघ के दौरे पर गया। उन्होंने जो भी कुछ वहां देखा उससे वे अत्यंत प्रभावित हुए और वे उसका गुणगान करते हुए लौटे तथा वे इस बात के प्रति आश्वस्त थे कि स्वतंत्र भारत द्वारा अपनाए जाने के लिए वह एक आदर्श था।

मसानी ने सोवियत संघ का दो बार दौरा किया, पहली बार 1927 में जब वे एलएसई के विद्यार्थी थे तथा दूसरी बार, आठ वर्ष बाद 1935 में जब वे सोशलिस्ट कांग्रेस पार्टी के सचिव थे। मसानी लिखते हैं कि दूसरा दौरा जयप्रकाश नारायण के आग्रह पर था। यह रुचिकर है कि उन्हें सोवियत संघ का दौरा पुन: क्यों करना चाहिए, इसके लिए यह कारण दिया गया कि रूसी साम्यवादियों के साथ सीधे-सीधे बातचीत करना अधिक बेहतर रहेगा, बजाए इसके कि ब्रिटिश साम्यवादियों के माध्यम से ऐसा किया जाए। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के स्थान पर सोवियत नेतृत्व के साथ बात करने की नेहरू की प्राथमिकता यही होती थी कि वे प्राय: भारत में सीपीआई के व्यवहार के विषय में शिकायत किया करते थे।

जब वे मास्को पहुंचे, तो मसानी ने पाया कि कॉमिन्टर्न के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत करनी है, जो अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी आंदोलन का प्रतिनिधित्व करने वाला निकाय था। और ये प्रतिनिधि और कोई नहीं, बल्कि हैरी पॉलिट तथा आर. पाल्म दत्त द्वारा नेतृत्व किए जा रहे ब्रिटिश साम्यवादी ही थे। मसानी सीएसपी की ओर से एक अधिदेश लेकर आए थे कि वे कॉमिन्टर्न से सहयोजित हो जाएं। जब उन्होंने उनसे कहा कि सीएसपी कॉमिन्टर्न के साथ सहयोजित होने के लिए तैयार हैं (हालंकि वे इस निकाय से संबंद्ध नहीं थे) बशर्ते मास्को सीपीआई से अपना समर्थन वापस ले ले। कॉमिन्टर्न की ओर से आर. पाल्म दत्त ने इस बात से इनकार करते हुए कहा, ''देखिए कॉमरेड मसानी, हमें भारत में अपनी स्वयं की पार्टी चाहिए।''

अपनी इस यात्रा के बाद मसानी ने अपनी ''सोवियत साइडलाइंट्स'' नामक पत्रिका प्रकाशित की जिसमें उन्होंने सोवियत संघ और उसकी उपलब्धियों के लिए अपनी अदम्य प्रशंसा का त्याग किया। मसानी ने स्वीकार किया कि उनकी टिप्पणियां ''नौसिखिया'' थीं और साथ ही कहा कि, ''मैं अपने आपको केवल इसी तर्क के आधार पर माफ कर सकता हूं कि मैं उन हजारों युवा विद्वतजनों में से एक था, जो वर्ष 1930 के दशक में सोवियत संघ के विरुद्ध न तो कुछ बुरा सुन सकते थे और न कुछ बुरा कह सकते थे।

इसी के साथ मसानी की समाजवादी अवस्था की शुरुआत हुई। वे कांग्रेस समाजवादी पार्टी (सीएसपी) के संस्थापक सदस्य बने जो एक स्वतंत्र राजनैतिक पार्टी नहीं थी, परंतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ही भीतर एक दबाव बनाने वाला समूह था, जो कांग्रेस को वाम दलों की ओर ले जा रहा था। अपने प्रारंभिक दिनों में, कांग्रेस उदारवादियों की पार्टी थी तथा उसकी उन्मुखता भी उदारवादी थी। गांधी जी के कांग्रेस में प्रवेश तथा गोखले के निधन से पार्टी की उदारवादी प्रधानता समाप्त हो गई। उदारवादियों ने 1918 में कांग्रेस को छोड़ दिया तथा अपनी स्वयं की पार्टी बना ली, जो भारतीय उदारवादी पार्टी (इंडियन लिबरल पार्टी) थी।

जब गांधीजी निर्विवाद रूप से कांग्रेस के नेता के रूप में उभरकर आए, तो सीएसपी में समाजवादी नेता उनके प्रमुख आलोचक थे। जवाहरलाल नेहरू सीएसपी के प्रति नर्म रूख रखते थे, हालांकि वे स्वयं को उनके साथ खुले में दिखाने के प्रति इच्छुक नहीं थे। स्वाभाविक रूप से, सीएसपी का संस्थापक सदस्य होने तथा संयुक्त सचिव होने के कारण मसानी ने जवाहरलाल नेहरू का समर्थन हासिल किया। दूसरी ओर, सरदार पटेल और राजाजी ने कभी भी मसानी की तरफ विनम्रता के भाव से नहीं देखा। उनके लिए वे परेशानियां पैदा करने वाले एक समाजवादी थे। यदि मसानी ने समाजवाद को लोकप्रिय न बनाया होता, और वे सामान्य रूप से कट्टर आलोचक न बने होते, तो शायद मसानी भी, अपने समकालीन वी.के. कृष्णा मेनन की ही भांति सार्वजनिक पद हासिल कर सकते थे, जिसमें केंद्रीय मंत्री का पद भी शामिल हो सकता था। इसके स्थान पर, वे अधिक-से-अधिक जहां तक पहुंच सके, उनमें संविधान सभा के सदस्य, ब्राजील के राजदूत तथा संयुक्त राष्ट्र भेदभाव निवारण और अल्पसंख्यक संरक्षण उप-आयोग के अध्यक्ष का पद भी शामिल है।

स्वतंत्रता सेनानी

भारत लौटने पर मसानी ने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने के साथ अपनी वकालत का मिश्रण करने का प्रयास किया। इन दोनों में तालमेल नहीं बैठ सका और मसानी ने स्वयं स्वीकार किया कि वे एक अच्छे वकील के गुणों से लैस नहीं थे। वकालत उनकी पृष्ठभूमि की देन थी तथा स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी सहभागिता आगे उभरकर आई। उनके इंग्लैंड से लौटने के चार साल बाद, मई 1932 में मसानी स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर पहली बार जेल गए। उन्हें नागरिक अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के लिए बिना सुनवाई के दो माह तक जेल में रखा गया, जो उस समय अपना प्रभाव बढ़ाना आरंभ कर रहा था। एक वर्ष से भी कम समय बाद, जनवरी, 1933 में, उन्हें एक बार फिर बैठकों पर लगे प्रतिबंध को तोड़ने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था उन्होंने वह पूरा वर्ष नासिक की केंद्रीय कारागार में बिताया।

नासिक जेल में ही वे अन्य कैदियों के संपर्क में आए जिनमें अन्य लोगों के साथ-साथ जय प्रकाश नारायण (जेपी), अच्युत पटवर्धन तथा यूसुफ मेहराली और अशोक मेहता शामिल थे तथा उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) का गठन किया और उसके संयुक्त सचिव बने। इन चारों के बीच एक अटूट रिश्ता उस वर्ष जेल में कायम हुआ, हालांकि आने वाले वर्षों में उन्होंने अलग-अलग राजनैतिक रास्ते अपना लिए।

संयुक्त राष्ट्र में एक छात्र के रूप में जेपी संयुक्त राष्ट्र की कम्युनिस्ट पार्टी से प्रभावित हुए थे, जैसा मसानी ने लिखा है, वे सभी व्यावहारिक प्रयोजनों से, एक साम्यवादी थे।'' जयप्रकाश ने भी स्वयं को एक ''राष्ट्रीय साम्यवादी'' माना है, जो अनेक संदर्भों में विरोधाभासी है। और यह विरोधाभास जल्द ही वास्तविकता में बदल गया जब जेपी ने साम्यवाद को अस्वीकार कर दिया। मसानी लिखते हैं, ''वे उस समय घबरा गए जब भारतीय साम्यवादी पार्टी (सीपीआई) ने मास्को के मार्ग का अनुसरण किया कि सभी राष्ट्रवादी तथा लोकतांत्रिक समाजवादी ''सामाजिक फासीवादी हैं जिनके बीच कोई सहयोग संभव नहीं है तथा जिनका लोगों के बीच प्रभाव कम होता जा रहा है।'' अत: जेपी ने, कि ''श्रमिक-वर्ग की तानाशाही के सच्चे पक्षधर थे'' और जिनके लिए ''मार्क्सवाद उनके विश्वास की आधारशिला थी'' तथा मसानी, ''ब्रिटिश लेबर पार्टी प्रकार के एक कट्टर लोकतंत्रवादी'' और इससे भी अधिक ''अक्तूबर क्रांति के अत्यंत कट्टर प्रशंसक थे, उनके साथ मिलकर पार्टी का गठन कर दिया क्योंकि ये दोनों ही, ''भारत के राजनैतिक मानचित्र पर समाजवाद लाने के इच्छुक थे और वे इसके लिए सामंतवाद विरोधी संघर्ष तैयार करने लगे।''

भारतीय मस्तिष्कों तथा हिंदू विशेषताओं पर मसानी

ऐसी कुछ विशेषतएं थीं, जिनको वे कभी भी सहजता से नहीं लिया करते थे। वे कभी भी यह समझ न सके कि कोई भी भारतीय सहमति में अपना सिर क्यों हिलाता है, भले ही वह उस बात से असमहत है। उन्हें इस विशेषता से तब दो-चार होना पड़ा, जब वे सीएसपी के सचिव के रूप में उत्तर प्रदेश गए थे तथा उन्होंने कुछ प्रस्ताव पेश किए, जिन्हें ''वहां उपस्थित लोगों ने सिर हिलाकर और जुबानी तौर पर सहमति दी। मैं उनकी प्रक्रिया से बहुत प्रसन्न हुआ'' मसानी ने अपनी जीवनी में उल्लेख किया है।'' परेशानी तब हुई, जब मैं वापस बंबई में अपने मुख्यालय आया, तो मैंने यह पाया कि मेरे प्रस्तावों का क्रियान्वयन बिलकुल भी नहीं किया गया है... तब मेरे मित्रों ने मुझे ज्ञान दिया। उन्होंने मुझे बताया कि उत्तर भारत में, विशेष रूप से सुसंस्कृत लोगों के बीच, कोई भी व्यक्ति किसी की बात का खंडन नहीं करता है और न उसे कहता है कि वह गलत है। मेरे उत्तर प्रदेश के मित्र वस्तुत: मेरी बातों से कभी भी सहमत नहीं हुए परंतु वे इतने विनम्र थे कि उन्होंने कभी ऐसा कहा भी नहीं। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स तथा ब्रिटिश लेबर पार्टी के एक छात्र के लिए यह मानो एक बड़े झटके के समान था। मेरे प्रस्तावों के बारे में असहमति व्यक्त करने में क्या हर्ज है? यह एक ऐसी अभिवृत्ति है जिसे मैं कभी भी ग्रहण नहीं कर सकता हूं। पर अन्य लोगों की भांति, अंत में, मुझे इसके साथ रहना सीखना है।'' (मुझे आश्चर्य है कि क्या मसानी वास्तव में इस आदत के साथ जीना सीख गए थे। यह घटना वर्ष 1934 में घटित हुई थी। तीस वर्ष बाद भी मैं उनसे वही रटी-रटाई टिप्पणियां सुन रहा था। वे कभी भी ''इस विशिष्ट भारतीय विशेषता'' के अभ्यस्त नहीं हुए।''

एक अन्य भारतीय अथवा ''हिंदू विशेषता'' जैसा कि वे इसे कहा करते थे, तथा जो उन्हें खींझ पहुंचाने में कभी भी नहीं चूकी, वह यह थी कि भारतीय किसी भी मुद्दे पर कोई स्पष्ट सब लेने में असमर्थ नहीं होते हैं। ''क्या भारतीय मस्तिष्क पारंपरिक रूप से विश्व के अन्य लोगों की तुलना में अधिक बोलीगत होते हैं? क्या यह ऐसे दर्शन का प्रतिबिंब हैं कि कुछ भी काला या सफेद नहीं है, परंतु हर चीज अलग ही भूरे रंग की है, कि प्रश्न के प्रत्येक पहलू पर बोलने के लिए कुछ-न-कुछ है, कि प्रश्न हमेशा ही 'हां' या 'ना' में उत्तर की अपेक्षा नहीं करते तथा यह कि ''शायद'', ''हो सकता है'' अधिकांश प्रश्नों के श्रेष्ठ उत्तर हैं? इसके उदाहरण के तौर पर मसानी ने एक ऐसी घटना का उदाहरण देते हैं जिसमें जवाहरलाल नेहरू शामिल थे। ''जवाहर लाल नेहरू ने एक बार बताया कि स्वतंत्रतला के ठीक पश्चात वे वाशिंगटन का दौरा करने के लिए आमंत्रण को टाल रहे थे... देखिए उन्होंने बताया, ''अमेरिकी बहुत ही अद्भुत लोग होते हैं। वे चालाक नहीं होते हैं। उन्हें उत्तर के लिए 'हां' या 'नहीं' की अपेक्षा होती है।'' जैसे-जैसे समय बीता मुझ्से यह बात समझ् में आने लगी कि संभवत: गुट-निरपेक्ष की नीति को भारतीय मस्तिष्क की इस विशिष्ट विशेषता के कारण औचित्यसम्मत किया जाएगा।''

जब सीपीआई सीएसपी पर कब्जा करने का प्रयास कर रही थी, तब साम्यवादियों ने मसानी पर आक्रमण करने के लिए उन्हीं का चयन कर लिया। जेपी ने सीपीआई के सचिव पी.सी. जोशी से पूछा, ''आप मसानी पर ही आक्रमण क्यों कर रहे हैं, जबकि आपने हम सभी को इससे छोड़ रखा है।'' जोशी का उत्तर बहुत छोटा और सटीक था, ''आप बाकि लोग हिंदू हैं और हम लोग आपका ध्यान रख सकते हैं, परंतु मसानी एक अंग्रेज हैं।'' मसानी के बाद में उनकी बात की व्याख्या की, ''वे समझते हैं कि सीएसपी के नेतृत्व में मुझे अकेले ही पश्चिमी विश्व की संगठनात्मक सक्षमता हासिल है। एक बार वे मुझे समाप्त कर देंगे तो पार्टी पर उनका कब्जा आसानी से हो जाएगा।''

अपने पिता की ही भांति, मसानी को गुस्सा बत आता था, जिसने अनेक को डरा दिया था। प्रारंभ में उन्होंने मुझ्े भी भयभीत किया, परंतु उनके निजी सचिव ने, जो कार्यकुशलता और सक्षमता में उनके ही समान कुशल थे, मुझ्े बताया कि चिंता करने की कोई बात नहीं है। आप अगर समझ्ते हैं कि आप सही हैं, तो अपने पक्ष पर अडिग रहें। मैंने ठीक वही किया और यह पाया कि वे उन लोगों का सम्मान करते थे जो उनसे नाहक भयभीत होने से इनकार कर देते थे और अपनी बात के सच्चे थे। वस्तुत: यही एक कारण थ कि हमारा संबंध बहुत देर तक चला और तभी टूटा जब 1998 में उनका निधन हुआ।

वे एक ऐसे उदारवादी थे, जिन्होंने कभी भी प्रतिरोधी विचारों का दमन नहीं किया (यदि वे किसी बैठक अथवा चर्चा की अध्यक्षता कर रहे होते थे, तो वे यह सुनिश्चित करते थे, जो भी कोई बोलना चाहता है, उसे बोलने का मौका मिले), उन्होंने अपना कार्यालय तथा सचिवालय बत ही दृढॅ संकल्प के साथ चलाना तथा वे किसी अन्य धारणा पर विश्वास करने के प्रति इच्छुक नहीं थे। लीचला बनने की उनकी पुरानी असमर्थता, ऐसी स्थिति में भी जब सिध्दांतों का उल्लंघन न भी होता था, उनकी भूरी (गलत) चीज को स्वीकार न करने की आदत से उत्पन्न हुई थी। उनके अनुसार या तो चीज सफेद है अथवा काली।

ऐसे कारण बताकर उनकी सेवानिवृत्ति की घोषणा, जो कि किसी को भी आश्वस्त करने वाले प्रतीत नहीं होते हैं, यह दर्शाता है कि संघर्ष करने की समर्थता उनमें कम थी। वे सीएसपी में रह सकते थे तथा अपनी प्रतिबध्दता को पूरा करने के लिए और अधिक मेहनत कर सकते थे। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके स्थान पर उन्होंने त्याग-पत्र दे दिया। उन्होंने सीएसपी नहीं छोड़ी क्योंकि वे समाजवाद पर विश्वास नहीं करते थे। यह स्थिति तो बाद में आनी थी। उन्होंने साम्यवादियों के साथ संयुक्त मोर्चा जारी रखने के अपनी पार्टी के निर्णय के विरोध के तौर पर त्याग-पत्र दे दिया था। उन्होंने सीएसपी के प्राथमिक सदस्यता के इस्तीफा दे दिया था क्योंकि पार्टी ने ब्रिटिश के युध्द प्रयासों को समर्थन देने का निर्णय लिया था, जिस पर साम्यवादियों का प्रभाव था। दोनों अवसरों पर उन्होंने वहां रहना उचित नहीं समझ और संघर्ष नहीं किया परंतु सेवानिवृत्ति ग्रहण कर ली।

एक वैयक्तिक आकलन

जब स्वतंत्रता पार्टी की वर्ष 1971 के निर्वाचन में हार हो गई, तो उन्होंने न केवल अध्यक्ष पद छोड़ दिया, बल्कि दलगत राजनीति भी छोड़ दी। मेरे पास इस घटना की दर्दभरी यादें हैं हममें से अनेकों ने उन्हें त्याग-पत्र न देने के लिए बत मनाया। राजाजी ने मुझे एक पत्र भेजा तथा मुझसे कहा कि मैं उनकी राय को मसानी को संप्रेषित करूं तथा अपनी मनाने की शक्ति का प्रयोग उन्हें पद पर बने रहने के लिए करूं, कम-से-कम आगामी दो वर्ष तक, जब तक पार्टी हार के सदमे से उबर जाएग। मसानी अपनी बात पर अड़िगत थे। उन्होंने महा परिषद के सदस्य कर्नल एच.आर. पसरीचा के साथ निरर्थक बहस की कि स्वतंत्र पार्टी ने एक युध्द हार दिया है, एक लड़ाई नहीं। अब कर्नल पसरीचा की उन्हें समझने की बारी थी, जिसे हममें से अनेक ने समर्थन दिया था, कि 1971 के चुनावों ने स्वतंत्रता पार्टी की समाप्ति का उद्धोष नहीं किया तथा हमने केवल एक लड़ाई में हार देखी है तथा अब हम पुन:संगठित होंगे तथा संघर्ष करेंगे। यह 'घातक चूक' संभवत: इस तथ्य के लिए उत्तरदायी है कि उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तथा उसके बाद उसके उत्कृष्ट रिकार्ड के बावजूद भारत की राष्ट्रीय हस्तियों में शुभार नहीं किया जाता है।

उनका एक अन्य दोष था, उनकी अन्य लोगों को अपने समान सक्षम न समझने की असमर्थता। लोगों के बारे में उनके निर्णय भी कहीं अधिक सत्य नहीं होते थे। सीधी बात तथा सजीला व्यक्तित्व उन्हें आसानी से प्रभावित कर लेता था। एक अच्छी तरह से सजा-संवरा व्यक्ति अपने धारा प्रवाह बात के साथ उन्हें पूरी तरह से प्रभावित कर लेता था।

परंतु ये सभी बातें उनकी अत्यंत उत्कृष्ट विशेषताओं से ढक गई थीं। उनका बौद्धिक एकीकरण एक थी तथा किसी को मानने का धैर्य दूसरी विशेषता थी। वे अपकर्षी होने की दृष्टि से भ्रष्ट नहीं थे तथा ईमानदार थे। इन सभी से ऊपर, वे पद का लालच नहीं करते थे।

जनता पार्टी सरकार ने मसानी को अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया। उन्होंने तत्कालीन ही यह पद स्वीकार कर लिया और ईमानदारी के साथ कार्य करना शुरू कर दिया था। परंतु वे चाहते थे कि आयोग को सांविधिक मान्यता प्रदान की जाए तथा वह उस समय विद्यमान सरकार की बजाए संसद के प्रति उत्तरदार हो। उन्होंने यह मांग भी की कि आयोग के अध्यक्ष को मंत्रिमंडल के मंत्री का दर्जा दिया जाना चाहिए ताकि वह प्रभावी हो सके। यदि ऐसा नहीं किया गया, मसानी ने चेतावनी दी, तो आयोग एक शक्तिहीन निकाय बनकर रह जाएगा और वह अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने में समर्थ नहीं रह जाएगा। ये दोनों ही सुझव मोरारजी देसाई द्वारा अस्वीकृत कर दिए गए, जो कि उस समय प्रधानमंत्री थे।

मसानी ने त्याग पत्र दे दिया तथा वे बंबई लौट लाए। उनके बारे में अशोभनीय टिप्पणियां की गईं, जिनमें आयोग के सदस्यों द्वारा ही की गईं टिप्पणियां भी शामिल थीं, जो ह्णेस में छाई रही जिनमें यह कहा गया था कि मसानी इसलिए नाराज हो गए कि उन्हें मंत्रिमंडल का दर्जा नहीं दिया गया और इसी कारण उन्होंने त्याग-पत्र दे दिया। मसानी का डर बहुत ही सच्चा प्रतीत हुआ। अल्पसंख्यक आयोग आज ऐसा निकाय बनकर रह गया है, जिसे कोई भी गंभीरता से नहीं लेता है।

उनमें सही बात को लेकर जवाहर लाल नेहरू के सामने भी डटकर खड़े होने का साहस था, हालांकि इससे उन्हें संभावित उच्च पद मिलने से रह गया। वे जिसमें विश्वास करते थे, तथा ऐसी स्थिति में जहां अनुभवजन्य साक्ष्य पर आधारित धारणाओं को इनकार करने का मामला बनता हो, के बीच समझैता करने के लिए तैयार नहीं थे। यह बात भी थी कि उनके रास्तों में आई अनेक बाधाओं के बावजूद अपने सिध्दांतों से समझैता किए बिना वे सफलता से भागे बढ़ते चले गए, लेकिन यह उनकी एक असफलता मानी जा सकती है। परंतु पद का संतुलित आकर्षण उनके दोषों में से एक नहीं है।

मसानी एक ''पैदाइशी उदारवादी'' नहीं थे। वे उदारवाद में शामिल हो गए थे। यह मार्ग काफी कंटीला तथा हताश कर देने वाला था। समाजवाद से उदारवाद तक की यात्रा बत आसान नहीं थी। परंतु वे अपने कुछ शत्रुओं को परास्त होते देखने के लिए जीवित रहे। शत्रुओं से मेरा तात्पर्य लोगों से नहीं है। मैं विचारों, अवधारणाओं तथा उनकी भौतिक अभिव्यक्तियों की बात कर रहा हूं। सोवियत साम्राज्य के नष्ट होने तथा इसी के साथ अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद की समाप्ति को भी उन्होंने देखा। उन्होंने राज नियंत्रणवाद का पतन तथा मुक्त बाजार का उद्भव और उससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात वैश्वीकरण को भी देखा क्योंकि मसानी एक अंतरराष्ट्रीयवादी थे और राष्ट्रीय अंधभक्ति के अत्यधिक विरोधी थे।

फ्रिट्स बोल्केस्टेन, जो कि हॉलैंड के एक प्रख्यात उदारवादी थे तथा वर्तमान में यूरोपीय संघ में एक उच्च पद धारण किए ए थे द्वारा लिए गए एक साक्षात्कार में मसानी ने ब्रिटिश के बारे में एक प्रश्न के उत्तर में कहा, ''जब वे लोग भारत में थे, मैं राष्ट्रवाद के आधार पर उनका बहुत विरोध किया करता था। मैं तीन बार ब्रिटिश की जेलों में गया। मैंने बिना किसी आपत्ति के गांधी जी का समर्थन किया। मैं स्वतंत्रता चाहता र्था परंतु जब हमें यह मिली, तो मैंने यह देखा कि राष्ट्रवाद का अब कोई अर्थ नहीं रह गय है क्योंकि इसका उद्देश्य पूरा हो गया था। अत: मैंने एक वैश्विक दृष्टिकोण विकसित कर लिया।

ये मसानी थे, जो परिस्थितियों को बदलने के लिए अपनी सोच को निरंतर विकसित किया करते थे तथा उसे अनुकूल बनाते रहते थे। जो बात निरंतर बनी रही, वह उनके मूल्यों की प्रणाली थी।

इस लेख का उद्देश्य मीनू मसानी के जीवनवृत्त का वर्णन करना नहीं है और न ही यह उस सभी वृत्तांतों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है, जो उन्होंने सार्वजनिक जीवन में कारित किए थे। मैंने जो भी करने का प्रयास किया है, वह यह है कि मैं मसानी की मार्क्सवाद से लेकर लोकतांत्रिक समाजवाद तक तथा वहां से उदारवाद तक की यात्रा का अनुसरण करूं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि आप इन दोनों के अवशेष इसमें पाएंगे जैसे कि आपने इस वर्णन को पढ़ते हुए पाया होगा।

मैं इस निबंध की समाप्ति मसानी के ही एक उध्दरण से कर रहा हूं, जो इस बात का सटीक वर्णन करेगा कि वे अपने जीवन के मिशन को किस प्रकार देखते थेः

''मैं यह समझता हूं कि आदमी सामाजिक प्रयोगों के लिए मात्र कच्चा माल नहीं है परंतु वह स्वयं में एक अंत है, तथा मानवीय मस्तिष्क की एक स्वतंत्र जांच समस्त जांच समस्त प्रगति का आधार है... जैसा कि मुझे एच.वी. वेल्स से सीखना पड़ा था ''मैं इस बात की परवाह नहीं करता कि मैं एक निश्चित समय पर समस्त मानव-जाति के विरुद्ध एक ही अल्पसंख्यक हूं, परंतु एक लंबी दौड़ में, मैं सत्य का दामन थामता हूं तो मैं जीतता हूं और यदि मैं ऐसा करने में असफल रहता हूं, तो मैंने अपना श्रेष्ठ प्रयास किया है।''

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मीनू मसानी के चुनिंदा प्रकाशन

  1. इंडियाज कंस्टियूशन एट वर्क (सी-वाई चिंतामणि के साथ), 1939
  2. सोवियत साइडलाइट्स, 1939
  3. अवर इंडिया 1939
  4. सोशलिज्म रीकंसीडर्ड, 1944
  5. यूअर फूड, 1944
  6. पिक्चर ऑफ प्लान, 1945
  7. ए प्ली फॉर ए मिक्स्ड इकॉनामी, 1947
  8. अवर ग्रोइंग ह्यूमन फैमिली, 1950
  9. कॉर्पोरिटिव फार्मिंग, द ग्रेट डिबेट, 1956
  10. न्यूट्रिलिज्म इन इंडिया, 1951
  11. द कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडियाः ए शार्ट हिस्ट्री, 1954
  12. कांग्रेस मिस रूल एंड स्वतंत्र अलटर्नेटिव, 167
  13. टू मच पॉलीटिक्स, टू लिटिल सिटिजनशिप, 1969
  14. लिबरेलिज्म (रिवाइड एंड टी-प्रिंटेड 1985), 1969
  15. दि कांस्टिटयूशन, टवेंटी इअर्स लेटर, 1975
  16. इज़ जेपी दि आन्सर, 1975
  17. जेपी'स मिशन पार्टली एकम्प्लिशड, 1977
  18. ब्लिस वाज इट इन दैट डॉन, 1977
  19. अगेंस्ट दि टाइड, 1981
  20. वी इंडियन, 1989

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