टेराकोटा पर्यावरणवाद क्या है?
मोहम्मद अनस खान, 22 अप्रैल, 2021
जब भी हम प्रकृति के बारे में सोचते हैं, तो प्रायः हम ऐसे किसी प्राचीन जंगल की मौजूदगी के बारे में सोचते हैं जहां इंसान की पहुंच न हो। पर्यावरणवाद को लेकर हमारी चर्चाओं में वर्षों से प्राकृतिक पर्यावरण की वह तस्वीर शामिल रही है, जहां मनुष्य की गतिविधियां अनुपस्थित हों। पर्यावरण से संबंधित हमारी अधिकांश नीतियां प्रकृति में मानवीय गतिविधियों को समाप्त करने पर केंद्रीत रही हैं। मानव और प्रकृति के बीच के सतत संघर्ष से जुड़ी यह धारणा पर्यावरणवाद के हरित दृष्टिकोण से जुड़ी हुई हैं। इस दृष्टिकोण का मानना है कि प्राकृतिक दुनिया से मानवीय गतिविधियों को अलग करना ही एक मात्र तरीका है। इसके अतिरिक्त, हरित दृष्टिकोण मानवीय प्रवृत्ति में सुधार के लिए कानून के बल पर ध्यान केंद्रीत करता है, जो नीतियों के रूप में भी परिलक्षित होता जैसे कि ‘संरक्षित’ वन क्षेत्रों से वहां रहने वाले लोगों को बेदखल करना, प्राकृतिक संसाधनों पर नौकरशाही का नियंत्रण और आर्थिक गतिविधियों अथवा प्राकृतिक पर्यावरण के व्यावसायिक प्रयोग पर प्रतिबंध आदि। हरित दृष्टिकोण में एक सुव्यवस्थित आर्थिक विचार की कमी होती है। यह न केवल पर्यावरण से संबंधित सकारात्मक परिणामों को प्रदान करने में असफल रहा है बल्कि इसका मूल्य मानवीय अधिकारों और समृद्धि के रूप में चुकानी पड़ी है।
एंथ्रोपोसीन (पृथ्वी पर मानव के प्रभाव वाले) युग में पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए एक समावेशी नीतिगत ढांचे के तहत मानवीय गतिविधियों को प्राकृतिक पर्यावरण के लिए अपरिहार्य माना जाना चाहिए। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी कुम्हार के द्वारा मिट्टी के बर्तनों की ढलाई की जाती है। यह प्रक्रिया मानवीय गतिविधियों के प्रभावों समुचित रूप से दर्शाती है और इसे टेराकोटा दृष्टिकोण कहते हैं। यह दृष्टिकोण प्राकृतिक संसाधनों के मोल को पहचानता है और ऐसा वह केवल उनके अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए नहीं करता है बल्कि मनुष्यों और उनके आस पास के वातावरण के बीच को संबंधों को सम्मान देने के लिए भी करता है।
टेराकोटा पर्यावरणवाद और हरित दृष्टिकोण में अंतर है क्योंकि इसका अंतिम लक्ष्य हरित दृष्टिकोण की तरह मानवीय प्रवृत्ति को सुधारना नहीं है बल्कि मानवीय प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित कर पुनर्स्थापित करना और उनका पुनर्गठन करना है। टेराकोटा पर्यावरणवाद हरित दृष्टिकोण से अलग है क्योंकि हरित दृष्टिकोण की तरह इसका अंतिम लक्ष्य मानवीय प्रकृति को सुधारना नहीं है बल्कि मानवीय प्रोत्साहन को पुनर्निर्मित और पुनर्गठित करना है। टेराकोटा दृष्टिकोण व्यापक तौर पर तीन स्तंभों पर टिका हुआ हैः बाजार, समुदाय और आजीविका तथा प्रोत्साहन।
बाजार की भूमिका
चूंकि बाजार को पर्यावरण क्षरण को बढ़ावा देने वाले कारक के रूप में देखा जाता है, इसलिए बाजार को पर्यावरण संरक्षण के स्रोत के तौर पर सोचना विरोधाभाषी प्रतीत हो सकता है। बाजार की कार्यप्रणाली दृष्टिगोचर नहीं होती है। यहां किसी बंधे बंधाए तरीके से काम करने की परिपाटी नहीं है और बाजार द्वारा पर्यावरण संरक्षण के समाधान सुझाने के तरीकों की सदैव पुनर्समीक्षा की जा सकती है। बड़े स्तर पर प्रदूषण का कारण बनने वाले औद्योगिक उत्सर्जन के बारे में विचार कीजिए। उत्सर्जन में कटौती करने के लिए विभिन्न सरकारों के द्वारा आदेश और नियंत्रण वाले दृष्टिकोण को अपनाया गया है जैसे कि भारी मात्रा में कर लगाना और ‘एक कमीज के सबपर फिट होने वाली’ कहावत को चरितार्थ करते हुए सभी उद्योगों के लिए समान उत्सर्जक मानकों को तय करना। यह न केवल आर्थिक तौर पर अव्यावहारिक है बल्कि आर्थिक विकास और पर्यावरण के बीच के रिश्ते को समाप्त करने का भी तर्क देता है।
ऐसी गैर प्रभावी नीतियों का एक विकल्प उत्सर्जन व्यापार योजना है। उत्सर्जन व्यापार योजना के तहत कुल उत्सर्जन की मात्रा की उच्च सीमा तय की जाती है। उच्च सीमा का आधार वह मात्रा होती है जितनी मात्रा में कटौती करना लक्षित होता है। उच्च सीमा के आधार पर निर्धारित मात्रा में उत्सर्जन की अनुमति प्रदान की जाती है और उसके पश्चात उद्योगों के बीच इसका व्यापार होता है। उत्सर्जन की इकाई हस्तांतरण के भी योग्य होती है इसलिए यदि कोई उद्योग स्वीकार्य उत्सर्जन की मात्रा से कम उत्सर्जन करता है और अपने हिस्से का कुछ भाग बचा लेता है तो वह उस बचे हुए हिस्से को किसी ऐसे उद्योग को बेच सकता है जिसे उत्सर्जन की ज्यादा जरूरत होती है। उत्सर्जन व्यापार योजना से उद्योगों के द्वारा नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करने में लगने वाली लागत में कमी आती है और उद्योगों को स्वच्छ ऊर्जा के स्रोतों के प्रयोग के प्रति प्रोत्साहन प्राप्त होता है। जिससे आर्थिक प्रगति को खतरे में डाले बगैर स्वच्छ वातावरण के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। भारत के कुछ हिस्सों में ऐसी प्रथा शुरू भी हो चुकी है। सूरत में पार्टिकुलेट मैटर के उत्सर्जन व्यापार से संबंधित दुनिया का पहला पायलट प्रोजेक्ट चल रहा है।
इस प्रकार, व्यवस्था बाजारों की शक्तियों और लचीलेपन का उपयोग करती है जिससे सभी का फायदा होता है और साथ ही साथ (i) नियमन में आने वाली कुल लागत घटती है (ii) प्रतिष्ठानों के मुनाफे में वृद्धि होती है और (iii) नागरिकों की प्रदूषण से रक्षा होती है। बाजार, मानवीय गतिविधियों का परिणाम है और टेराकोटा पर्यावरणवाद का आधार है क्योंकि यह ‘आर्थिक प्रगति और पर्यावरण’ के बीच के विभाजन को पाटने का प्रयास करता है।
समुदाय और आजीविका
सन् 1865 का भारतीय वन अधिनियम, जंगलों पर राज्य के अधिकार को औपचारिक रूप से समेकित करता है और भारत में वन समुदायों के सदियों पुरानी प्रथागत अधिकारों को समाप्त करता है। भारतीय वन अधिनियम, 1927 जंगल की भूमि और जंगल के संसाधनों पर भारतीय राज्य की संप्रभुता को और समेकित करता है। संरक्षण के नाम पर सरकार वनों को अपने नियंत्रण में रखती है जबकि उसके वास्तविक साझेदारों जैसे कि जंगली समुदायों आदि को इससे बाहर करती है। इन विधायी अधिनियमों का परिणाम यह हुआ कि वन भूमि और इसके संसाधनों पर निर्भर रहने वाले उसी जमीन पर ‘अतिक्रमणकारी’ हो गये जिसका वे ऐतिहासिक रूप से देखभाल करते थे।
दूसरी तरफ, वन्य अधिकारियों अथवा राज्य के एजेंटों को शक्तियों से लैस कर संरक्षित वन्य संसाधनों के ‘वैज्ञानिक तरीके’ से प्रबंधन करने की जिम्मेदारी प्रदान कर दी गई। चूंकि वन्य अधिकारी न तो वन्य संसाधनों वास्तविक हिस्सेदार होते हैं और न ही उनकी आजीविका उस पर निर्भर करती है, जंगलों के खराब प्रबंधन, गैर कानूनी लकड़ी के व्यापार और जंगली समुदायों के मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामले आए दिन सामने आते रहते हैं।
टेराकोटा दृष्टिकोण जंगली समुदायों की भूमिका, संरक्षण आधारित आजीविका और संपत्ति के अधिकारों पर बल देता है। भूमि पर अधिकार और वन्य संसाधनों के इस्तेमाल का अधिकार जंगली समुदायों के न केवल समृद्धि के लिहाज से महत्वपूर्ण है बल्कि जंगलों की बेहतर देखभाल और प्रबंधन के लिए भी जरूरी है। चूंकि इन समुदायों की आजीविका सीधे सीधे जंगल के संसाधनों पर निर्भर है इसलिए जंगलों की सुरक्षा, प्रबंधन और संरक्षण को लेकर ये बड़े प्रोत्साहित होते हैं। सामुदायिक स्वामित्व और सुपरिभाषित तथा संपति के अधिकार की अनुपालना से युक्त जंगलों का प्रबंधन एक साथ दो समस्याओं का हल निकालता हैः वे वनों को संरक्षित करते हैं और देश के सबसे गरीब समुदायों को सम्मानजनक आजीविका प्रदान करते हैं। सामुदायिक वन प्रबंधन से युक्त एक मजबूत प्रणाली वाले देश नेपाल में लगभग 2,831,707 हेक्टेयर वन हैं जिनका प्रबंधन स्थानीय समुदायों के लोग करते हैं और वन उपज से अपनी आजीविका कमाते हैं। जंगलों का प्रबंधन स्थानीय समुदायों द्वारा किये जाने के कारण पर्यावरण में सुधार हो रहा है जो बंजर भूमि, खंडित पहाड़ियों और अवक्रमित वन भूमि के उत्पादक जंगलों में परिवर्तित होने के रूप में दिखाई दे रहा है।
भारत में, वन अधिकार अधिनियम 2006 एक ऐतिहासिक कानून है जो टेराकोटा दृष्टिकोण को आगे बढ़ाता है अर्थात यह जंगली समुदायों के भूमि के अधिकारों और वन संसाधनों के अधिकारों को मान्यता देता है।
प्रोत्साहन मायने रखता है!
जब वन्य जीवन पर सरकार का स्वामित्व होता है तो जो लोग संरक्षित जानवरों के निकट रहते हैं, वे जानवरं की रक्षा करने के इच्छुक नहीं होते हैं। उनके लिए वन्य जीवन एक आर्थिक बोझ बन कर रह जाता है। स्पष्ट है कि वन्य जीवों की रक्षा करने के लिए उनके पास कोई प्रोत्साहन नहीं होता है।जब वन्यजीव राज्य के स्वामित्व वाले होते हैं, तो जो लोग संरक्षित जानवर के निकट रहते हैं, वे जानवरों की रक्षा करने के इच्छुक नहीं होते हैं। उनके लिए वन्य जीवन एक आर्थिक दायित्व है। वन्यजीवों की रक्षा के लिए उनके पास बस कोई प्रोत्साहन नहीं है। वास्तव में, शिकारियों और शिकारियों के साथ मिलीभगत करने की संभावना अधिक होती है क्योंकि यह उन आर्थिक नुकसान को दूर करने का एक तरीका है जो इन समुदायों को वन्यजीवों का कारण बनते हैं। वास्तव में, जंगली समुदाय के लोग अवैध शिकारियों और जंगली जानवरों का व्यापार करने वालों का साथ देने के विकल्प को चुन लें इस बात की संभावना अधिक हो जाती है कि क्योंकि इन समुदायों को वन्य जीवों के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान की भरपाई का यह एक तरीका बन जाता है।
जिम्बाब्वे में शुरू हुआ ‘द कम्युनल एरियाज़ मैनेजमेंट प्रोग्राम’ (कैम्पफायर) अपने तरीके का सबसे पहला वन्य जीव संरक्षण कार्यक्रम था जो सामुदायिक सहयोग से संचालित होता था। इस कार्यक्रम ने वन्य जीवन को पुनर्नवीनीकरण (अक्षय) और मुनाफे के संसाधन के तौर पर देखने का दृष्टिकोण दिया। जिम्बाब्वे के लाखों गरीब निवासियों ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया जिसने वन्य जीवन के प्रति उनके पूरे नजरिये को बदल दिया और उनके व्यवहार को संरक्षणवादी रुख दे दिया। इसने जिम्बाब्वे के उन नागरिकों को प्रोत्साहित करने का काम किया जो सामुदायिक स्वामित्व वाले वन्य जीवन वाले क्षेत्रों के समीप रहते थे क्योंकि वन्य जीव अभ्यारण, ट्रॉफी हंटिंग और वन भ्रमण को बढ़ावा मिलने से उन्हें आय का साधन प्राप्त होने लगा था। चूंकि उस कार्यक्रम के प्रतिभागी समुदायों का आर्थिक हित सीधे सीधे वन्य जीवों के अपने प्राकृतिक निवास स्थान में रहने से जुड़ गया था इसलिए उनका प्रत्यक्ष प्रोत्साहन न केवल वन्य जीवों की रक्षा करने बल्कि वन्य जीवन के प्रभावी प्रबंधन पर निर्भर हो गया।
विलुप्त हो रहे वन्य जीवों की संख्या में वृद्धि और संरक्षण कार्यक्रम को जारी रखने के लिए अति आवश्यक राजस्व की प्राप्ति के कारण कैम्पफायर का परिणाम सकारात्मक रहा है। ऐसे देशों में जहां बड़ी संख्या में नागरिक गरीब हो, संरक्षण के कार्यों को जारी रखने के लिए आवश्यक धनराशि को जुटाना मुश्किल काम होता है। कैम्पफायर प्रोजेक्ट के तहत वन्य जीवन प्रबंधन का कार्य स्थानीय समुदायों को दे दिये जाने के कारण सरकार के कंधों से इस प्रोजेक्ट की लागत की जिम्मेदारी हट गई। कैम्पफायर प्रोजेक्ट से मिलते जुलते प्रोजेक्ट भारत के पड़ोसी देशों में भी लागू किये गए हैं। पाकिस्तान में राष्ट्रीय जीव मारखोर के संरक्षण से जुड़ा बहु चर्चित प्रोजेक्ट टेराकोटा दृष्टिकोण का उदाहरण है। मारखोर, पहाड़ी बकरे की एक लुप्त होती प्रजाती है। इसके अंधाधुंध अवैध शिकार के कारण इसके विलुप्त होने का अनुमान लगाया जाने लगा था। लेकिन अब यह जीव अपने प्राकृतिक निवास स्थान पर लौट आया है। गिलगित बाल्टिस्तान में सामुदायिक भागीदारी के साथ नियंत्रित ट्रॉफी हंटिग को कानूनी बना दिये जाने से स्थानीय समुदायों को मारखोर को उसके प्राकृतिक निवास स्थान पर संरक्षित करने प्रति प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।
टेराकोटा दृष्टिकोण में प्रोत्साहन और लोगों का महत्व है। उनका महत्व स्पष्ट है क्योंकि संरक्षण परियोजनाओं के ऐसे प्रयास जो समुदायों, स्थायी आजीविका और बाजार आधारित प्रोत्साहन को शामिल करते हैं, बहुत अधिक लचीले होते हैं क्योंकि वे अच्छी नियत को अच्छी संरक्षण नीति से जोड़ते हैं।
डिस्क्लेमर:
ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।
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