भारत का वैचारिक बदलाव-मिश्रित अर्थव्यवस्था से उदारवाद की ओर
पिछले बीस सालों में देश के कोने-कोने में स्थापित हुई मल्टी नेशनल कंपनीज (एमएनसी) उदारवाद के आगमन का प्रतीक हैं। लोकल से ग्लोकल और ग्लोकल से लोकल इन दोनों जुमलों ने अपनी जगह बनाई लेकिन इनमें वैश्विकरण(ग्लोबलाइजेशन) स्थाई भाव में मौजूद है। वैश्वीकरण उदारवाद की अवधारणा का वैश्विक आयाम है। लेकिन इससे पहले हमें उदारवाद की बुनियाद को समझना होगा।
उदारवाद शब्द की उत्पति लैटिन भाषा के लिबर शब्द से हुई थी। जिसका अर्थ स्वतंत्र होता है। इसी शब्द से लिबर्टी और लिब्रलिजम शब्द की उत्पत्ति हुई थी। प्राचीन समय से ही इस वाद का प्रयोग किया गया लेकिन अपने मुखरित और पारिभाषिक स्वरूप में यह 17-18वीं शताब्दी में सामने आई। उदारवाद के जनक के रूप में जॉन लॉक का नाम आता है। इनको आधुनिक लोकतंत्र का जनक भी माना जाता है। इसके साथ ही इस विचारधारा को स्थापित करने का श्रेय एडम स्मिथ और जर्मी बेंथम को जाता है।
उदारवाद की अवधारणा मूलता स्वत्वमूलक व्यक्तिवाद की अवधारणा पर आधारित है। जिसका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशिष्ट गुण होते हैं। हर व्यक्ति को अपने गुणों का सर्वांगीण विकास करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। उदारवाद स्वतंत्रता की अवधारणा का पूर्णता समर्थक है। इसके अनुसार देश या समाज को एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना चाहिए जिसमें व्यक्ति अपने सवत्वमूलक गुणों का स्वतंत्ररूप से विकास कर सके। इस आधार पर ही एडम स्मिथ ने अपनी किताब ‘द वेल्थ ऑफ नेशन्स’ में ‘लेसे फ़ेयर’ ( अहस्तक्षेप का सिध्दांत) दिया था। जिसके अनुसार राज्य को केवल तीन कार्य करने चाहिए। बाहरी हमलों से सुरक्षा, राज्य की कानून व्यवस्था और कल्याणकारी कार्य। इस सिध्दांत के मुताबिक व्यापारियों को दूसरे देशों से भी व्यापार करने की पूरी छूट देनी चाहिए। लेकिन उदारवाद अपने संकीर्णरूप में व्यक्तिवाद तक सीमित हो जाता है तो अपने विकसित रूप में वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) का रूप ले लेता है।
आधुनिक भारत में उदारवाद अपने प्रारम्भिक रूप में अंग्रेजी शासन में शुरू हुआ। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन इंग्लैंड के उदारवादी नीति का ही परिणाम था। जिसका दंश हमें उपनिवेशवाद के रूप में भुगतना पड़ा। लेकिन ब्रिटिश शासनकाल में ही भारत में स्थापित हुए आधुनिक कल कारखाने, फैक्ट्रियां और विदेशी व्यापार में तरक्की इसी उदारवाद की देन थी। जिस कारण आजादी मिलने के बाद राष्ट्र निर्माताओं ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की प्रणाली को अपनाया। जो कि उदारवाद और समाजवाद की अवधारणा का मिश्रण होती है। ताकि हम उदारवाद के कटु अनुभवों से बचते हुए आधुनिक तरक्की और विकास प्राप्त कर सके। आजादी के समय भारत की अधिकांश जनसंख्या बहुत गरीब थी और ना ही देश में बड़े पूंजीपतियों की संख्या थी। जिस कारण पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए समाजवादी अवधारणा का भी सहारा लिया। ताकि देश तीव्र विकास के साथ गरीबी उन्मूलन और समतामूलक समाज की स्थापना कर सके।
इसी का परिणाम था कि देश ने पंचवर्षीय योजनाओं के कार्यक्रम को चुना। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए देश ने हरित क्रांति, आपरेशन फ्लड जैसी सफल योजनाओं के माध्यम से अपने लक्ष्य को पाने की कोशिश की। इसी क्रम में देश इंदिरा गांधी के शासनकाल में समाजवाद की ओर अधिक झुक गया। जिसका परिणाम हमें बैंकों के राष्ट्रीयकरण, लाइसेंस राज के रूप में देखने को मिला। लेकिन नब्बे का दशक आते-आते वैश्विक परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका था। दुध्रुवीय दुनिया में समाजवाद के धढ़े सोवियत रूस का विघटन हो चुका था।
पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर पूंजीवाद और अमेरिका का दबाव स्पष्ट हो चला था। साथ ही देश के अंदर राष्ट्रीयकृत कंपनियों(पीएसयू), सरकारी संस्थानों में व्याप्त भ्रष्टाचार और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में शामिल न हो पाने के कारण आर्थिक संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। ऐसी अवस्था में देश ने प्रधानमंत्री पी.वी नरसिंहा राव के शासन काल में और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की नीतियों के तहत उदारवाद की ओर झुकने का निर्णय लिया। 1991 में देश ने एलपीजी मॉडल जिसका मतलब लिब्रलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन को अपनाया। देश की अर्थव्यवस्था को वैश्विक व्यापार और निजी पूंजीपतियों के निवेश के लिए धीरे-धीरे खोलने की छूट दी। इसे ही देश की अर्थव्यवस्था में उदारवाद की वास्तविक शुरूआत माना गया। 1995 में भारत का विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) का संस्थापक सदस्य बनना भारत में उदारवाद की स्थापना का महत्वपूर्ण पड़ाव है। वर्तमान में भारत उदारवाद की वैश्विक अवधारणा,ग्लोबलाइजेशन का सक्रिय भागीदार है।
डिस्क्लेमर:
ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।
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