भारतीय लोकतंत्र और उदारवाद
उदारवाद के लोकतांत्रिक सिद्धातों की नींव को मजबूत करता भारतीय लोकतंत्र और वैश्विक स्तर पर उदारवाद का पतन।
हमारे देश के पांच राज्यों में लोकतंत्र का महा पर्व चुनाव आयोग की देखरेख में मनाया जा रहा है। मतदाता इसमें अपनी भूमिका निभा रहे है। उदारवाद की राजनीति की दृष्टि से देखे तो तो ये कहा जा सकता है कि, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव, क़ानून का राज और इन दोनों की रक्षा करने वाले संस्थानों के प्रति व्यापक सम्मान का भाव उदारवाद का केंद्र बिंदु है।
उन्नीसवीं सदी में हुआ उदारवादी राजनीतिक विचारधारा का विकास प्रख्यात राजनीतिक विचारकों जॉन स्टुअर्ट मिल, थॉमस हिल ग्रीन, जेरेमी बेंथम, और अन्य लेखकों की रचनाएं इसकी उर्जा के मुख्य स्त्रोत बने थे। व्यक्तिगत स्वतंत्रता राजनीतिक उदारवाद का मुख्य सिद्धांत है.
मार्क्सवाद का उद्भव भी हमने उन्नीसवीं सदी में होते हुए भी देखा। अगर उदारवाद का मुख्य बिंदु स्वतंत्रता था, तो मार्क्सवाद का केंद्रीय विचार था-समानता। भारतीय लोकतंत्र ती खूबी ये रही है कि इसमें सभी वादों की प्रखर आवाजों को दबाया नहीं और उन्हें अपने पैस पसारने का अवसर प्रदान किया। जनता ने भी अपनी सूझबूझ से इनकी प्रासंसगिता को वोट के जरिए बयां किया है।
उदारवादी लोकतांत्रिक राजनीतिक विचारधारा के लिए चुनौती ये थी कि वो मुक्त बाज़ार वाली अर्थव्यवस्था के दावों के साथ-साथ सभी नागरिकों की समानता स्थापित करे। राजनीतिक विचारक सी. बी. मैक्फर्सन ने अपने लेखों में उल्लेखित किया कि उदारवादी राजनीतिक विचारधारा एंव बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था को विश्व के दो तिहाई देशों ने ख़ारिज कर दिया है। या तो इन्हें मार्क्सवाद के नाम पर अस्वीकार किया गया. या फिर, रूसो की लोकलुभावन जनवादी इच्छा की विचारधारा के आधार पर ख़ारिज कर दिया गया.
ओसाका में G-20 की बैठक से ठीक पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक साक्षात्कार में कहा कि वैश्विक स्तर पर उदारवाद का अंत हो रहा है। आज उन्हीं ने व्लादिमीर पुतिन ने विस्तारवाद की भमिका को आगे बढ़ाते हुए यूक्रेन पर हमला बोल दिया है। जिससे वैश्विक स्तर पर उदारवाद के पतन का अंदाजा आप लगा सकते है।
वर्तमान समय में उदारवाद में गिरावट के कारण:
वर्ष 1991 में साम्यवाद के पतन के समय उदारवाद अपने शिखर पर था। इस समय तक उदारवाद की सफलता पूर्ण स्वीकार्यता के साथ आगे बढ़ रही थी और भविष्य में भी उदारवाद का कोई ठोस विकल्प नहीं दिखाई दे रहा था।
वर्ष 2008-2009 के वित्तीय संकट ने उदारवादी आर्थिक व्यवस्था को चुनौती दी, उस समय अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं के पास इस संकट का कोई भी समाधान नहीं था। उस समय की आर्थिक विकास दर मात्र 1% से 2% तक रह गई थी। इस आर्थिक संकट से उबरने में विश्व को काफी समय लग गया।
उदारवादी व्यवस्था दो स्तंभों पर टिकी हुई है- एक स्तंभ व्यक्ति की स्वतंत्रता है (उदारवादी इस सिद्धांत को अपना सर्वोच्च मूल्य मानते हैं) और दूसरा स्तंभ आर्थिक विकास तथा सामाजिक प्रगति हेतु प्रतिबद्धता है।
उदारवाद में इन दोनों स्तंभों को एक-दूसरे से संबंधित माना जाता है। वर्तमान विश्व की सबसे बड़ी समस्या यही है कि इस व्यवस्था के मूल सिद्धांत वैध नहीं रह गए हैं, वैश्विक आर्थिक विकास की प्रकृति प्रगतिशील तो है लेकिन समाज में समावेशी विकास का अभाव दिख रहा है। उदाहरणस्वरूप प्रति व्यक्ति आय तो बढ़ रही है लेकिन गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों की प्रभावशीलता पर्याप्त नहीं है।
इस प्रकार की स्थितियों के मद्देनज़र विश्व द्विपक्षीय और गुटबाज़ी में फँसता जा रहा है। यूरोपीय संघ, अफ्रीका समूह, आसियान जैसे समूह कहीं-न-कहीं उदारवाद के मूल को क्षति पहुँचा रहे हैं।
शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ की शक्ति को संतुलित करने के लिये बनाए गए नाटो जैसे संगठन की वर्तमान प्रासंगिकता समझ से परे है। शायद इस प्रकार के संगठन केवल क्षेत्रीयता को बढ़ावा दे रहे हैं क्योंकि इस प्रकार के संगठनों का कोई निश्चित ध्येय तक नहीं निर्धारित किया गया है।
आज उदारवाद अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहा है क्योंकि पुनर्जीवित राष्ट्रवाद इसके सम्मुख एक स्थायी खतरा उत्पन्न कर रहा है। इसी राष्ट्रवाद के स्वरूप में विभिन्न देशों में कट्टरपंथ का उदय हो रहा है। इस प्रकार के विचारों से घिरी सरकारें अपने देश को संधारणीय और वैश्विक हितों को नज़रअंदाज़ करते हुए प्राथमिकता देने वाली नीतियों का निर्माण कर रहे हैं।
उदारीकरण के बाद बहु-राष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कंप्यूटर, रोबोट और सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग स्थानीय रोज़गार को प्रभावित कर रहा है, इस कारण से स्थानीय उद्योगों और संस्थाओं द्वारा उदारीकरण का विरोध किया जा रहा है।
आगे की राह:
कई उदार अर्थशास्त्रियों और पर्यावरणविदों के अनुसार, पृथ्वी के संसाधनों की सीमित क्षमता है और यह लगातार बढ़ती मानव आबादी तथा उनकी बढ़ती ज़रूरतों को समायोजित नहीं कर सकती है।
प्रकृति हमारी सभ्यता के वर्तमान विकास को बनाए नहीं रख सकती है और इसलिये सरकार की नीतियों में परिवर्तन आवश्यक है। अतः भौतिक चीज़ो का पीछा करने के बजाय एक खुशहाल और संतुष्ट जीवन जीने का लक्ष्य निर्धारित किया जाना चाहिये।
समावेशी नीतियों के निर्माण के साथ ही इनके क्रियान्वयन हेतु मानक स्थापित किये जाएँ साथ ही उदारवाद के मुख्य सिद्धांत सामाजिक कल्याण का गंभीरता से पालन किया जाए।
उदारवाद के अभिजात्यकरण को सीमित किया जाए क्योंकि इस प्रकार की स्थिति में सैधांतिक रूप से उदारवाद प्रगतिशील प्रतीत हो रहा है लेकिन व्यावहारिक रूप से वह काफी पिछड़ा हुआ है।
उदारीकरण को बढ़ाया जाना चाहिये जिससे सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों का समावेशी विकास किया जा सके।
स्रोत: कुछ हिस्सा द हिंदू से।
डिस्क्लेमर:
ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।
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