अमीरी-गरीबी के बीच की गहरी खाई का कारण नीतिगत खामियां!

हाल ही में भारत से संबंधित दो बड़ी घटनाओं ने दुनियाभर में सुर्खियां बटोरी। एक, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के मामले में भारत ने ब्रिटेन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का तमगा हासिल किया। दो, भारतीय उद्योगपति गौतम अडानी अमेजन के संस्थापक जेफ बेजोस को पीछे छोड़ दुनिया के दूसरे सबसे अमीर आदमी बन गए। अब उनके आगे सिर्फ टेस्ला के मालिक एलन मस्क ही हैं। इन दो खबरों ने जहां अनेक भारतीयों को गौरवान्वित किया वहीं आलोचक भी मुखर हो गए। फिर से राग अलापा जाना शुरू हो गया कि ‘देश में अमीर और अमीर होता जा रहा है जबकि गरीब और गरीब हो रहा है।’

यह सही है कि वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में अधिकतम लाभ उस तबके के हिस्से में ही आ रहा है जो पहले से ही अमीर है। गिनी गुणांक के अनुसार भारतीयों की आय में असमानता भी बढ़ती जा रही है, लेकिन गरीब और गरीब हो रहा है यह कहना तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है। नब्बे के दशक में देश में हुए आर्थिक सुधारों के बाद बड़ी आबादी गरीबी रेखा से बाहर आ चुकी है। पिछले तीन दशकों के भीतर देश में प्रति व्यक्ति आय में भी तेजी से वृद्धि हुई है। वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के अनुसार 1991 में जहां देश में प्रति व्यक्ति जीडीपी 301 डॉलर थी, वहीं 2021 में यह बढ़कर 2,277 हो गई। यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2005-06 से 2015-16 के दौरान भारत में 27.1 करोड़ लोग अत्यंत गरीब वर्ग से बाहर निकलने में सफल रहे। उधर, भारत में करोड़पतियों की संख्या में भी तेजी से इजाफा हुआ है। वर्ष 2021 में आयकर भरने वाले 131,000 ने स्वयं को करोड़पति घोषित किया था। एक वर्ष पहले तक करोड़पतियों की संख्या 125,000 थी। वर्ष 2026 तक देश में करोड़पतियों की संख्या दोगुनी हो जाने की उम्मीद है। इसके अलावा ऐसे नागरिकों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है जिनकी वार्षिक आय 10 लाख से एक करोड़ के बीच रही। वित्त वर्ष 2021 में ऐसे आयकर दाताओं की संख्या 73 लाख थी जो 2022 में बढ़कर 77 लाख हो गई। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार देश के किसानों की आय में भी वृद्धि हुई है। बड़ी जोत वाले किसानों की वार्षिक आय में जहां 2 फीसद की वृद्धि हुई है वहीं छोटे किसानों की आय में 10 फीसद की वृद्धि हुई है।

स्पष्ट है कि देश के प्रत्येक वर्ग ने महत्वपूर्ण आर्थिक प्रगति की है, लेकिन अमीरों की आय में तुलनात्मक रूप से अधिक वृद्धि हुई है। अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर वे क्या कारण हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में बाजार और उसमें सुधार के प्रयासों का सबसे ज्यादा लाभ अमीर को ही मिल रहा है? क्यों अमीर और गरीब बीच खाई कम होने के बजाए बढ़ती जा रही है? और क्यों अमीर की आय ज्यादा तेजी से बढ़ रही है और गरीब की आय तुलनात्मक रूप से कम तेजी से बढ़ रही है?

इतने सारे क्यों का जवाब सिर्फ एक है, और वह है पब्लिक पॉलिसी अर्थात लोकनीतियों का खामियों से युक्त होना। विडंबना है कि इस देश में अब भी सरकारी फैसलों का अच्छी नीति की बजाए अच्छी नियत से युक्त होना ज्यादा जरूरी माना जाता है। 1991 में आर्थिक सुधारों को आत्मसात करने के दौरान बड़े व्यवसायों की राहें आसान की गईं और उन्हें प्रोत्साहन प्रदान किये गए, जबकि कृषि व अन्य असंगठित क्षेत्र इन सुधारों से अछूते रहें। इसे हम एक आसान उदाहरण से समझ सकते हैं। तरक्की के लिए जरूरी है कि व्यवसायी लगातार बाजार की मांग के अनुसार अपने व्यवसाय का विस्तार करता रहे। इसके लिए वह अपने लाभ का कुछ हिस्सा बचाकर अथवा कहीं से कर्ज आदि लेकर व्यवसाय में निवेश कर उसमें विस्तार कर सकता है। बड़े उद्योगों के लिए यह प्रक्रिया बड़ी स्वाभाविक है और सरकार द्वारा कर में कटौती और बैंकों द्वारा आसान कर्ज उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाती है। जबकि गरीब लोगों के लिए रास्ते इतने मुश्किल बना दिये जाते हैं कि वे प्रगति के रास्ते से बिल्कुल कट जाते है। उदाहरण के लिए एक दशक पूर्व तक दिल्ली की सड़कों पर चलने वाले रिक्शों की अधिकतम सीमा तय थी। 2009 के आंकड़ों के मुताबिक मात्र 99 हजार रिक्शों को आधारिक रूप से चलने की अनुमति थी। इसके लिए एमसीडी द्वारा लाइसेंस प्रदान किया जाता था। कुछ ठेकेदारों ने इस व्यवस्था का फायदा उठाया और विभाग में मिलीभगत से दर्जनों लाइसेंस अपने नाम से जारी कराने शुरु कर दिए। बाद में इन लाइसेंसों के आधार पर गरीबों से उन्हें चलवाने लगे। इसके बदले में रिक्शा चालकों से प्रति शिफ्ट 25-40 रूपए तक वसूली जाती थी।  इसके बाद सरकार ने प्रति व्यक्ति एक लाइसेंस जारी करने का नियम बना दिया। लाइसेंस को चालक के नाम से ही जारी किए जाने का भी प्रावधान किया गया। अर्थात लाइसेंस उसे ही मिलेगा जो स्वयं रिक्शे का मालिक होगा। सुनने में तो यह नीति काफी जन-कल्याणकारी प्रतीत होती है लेकिन इसके दुष्प्रभाव देखिए। दिल्ली की सड़कों पर उस समय भी 3 से 5 लाख रिक्शे चलते थे। मतलब यह कि जितने लाइसेंस दिए गए उससे पांच सौ फीसद ज्यादा।

अब ये रिक्शे चल कैसे रहे थे? सीधी बात है अधिकारियों की मिलीभगत और रिश्वतखोरी के बल पर। एक सर्वेक्षण के मुताबिक पांच लाख रिक्शा चालकों से एमसीडी अधिकारियों द्वारा प्रतिमाह कम से कम सौ रूपए वसूला जाता था। इस प्रकार, यह छोटी सी राशि कुल मिलाकर पांच करोड़ रूपए प्रतिमाह तक पहुंच जाती थी। सोचने वाली बात है कि रिश्वत लेने के बाद जब रिक्शे चल रहे थें और उनसे किसी को परेशानी नहीं थी तो फिर लाइसेंस लेकर चलने से कौन सी यातायात व्यवस्था बिगड़ जाती? मजे की बात यह है कि रिक्शा चालक भी सौ रूपए प्रतिमाह देने को खुशी खुशी तैयार थे है यदि उन्हें एमसीडी कर्मियों और पुलिसवालों द्वारा परेशान न किए जाने का आश्वासन मिलता। अब यह भी सोंचने वाली बात है कि यदि उन्हें लाइसेंस जारी कर उनसे पांच करोड़ प्रतिमाह और प्रतिवर्ष 60 करोड़ रुपए वसूले जाए तो रिक्शा चालकों के लिए अलग लेन बनाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन भी आराम से किया जा सकेगा। इससे लोगों को आसपास के इलाकों में आने जाने के लिए वाहन प्रयोग करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। प्रदूषण और पार्किंग की समस्या का भी समाधान। अब इसका दूसरा पहलू देखिए, चूंकि एक व्यक्ति को एक ही लाइसेंस मिलने की बाध्यता है और लाइसेंस उसे ही मिलेगा जो स्वयं रिक्शे का मालिक और चालक हो। अब यदि एक रिक्शा चालक कुछ पैसा जमा कर या कहीं से उधार आदि लेकर एक और रिक्शा खरीदना चाहे तो वह ऐसा नहीं कर सकता। क्योंकि उसे दूसरा लाइसेंस नहीं मिलेगा। यदि मिला भी तो रिक्शा चलाने की अनुमति सिर्फ उसे ही होगी और वह किसी और को रिक्शा चलाने के लिए देकर कुछ अतिरिक्त कमाई नहीं कर सकता। जबकि एक व्यवसायी एक दुकान से दूसरी दुकान और फिर तीसरी दुकान खोलने के लिए स्वतंत्र है। अब यदि रिक्शा चालक कुछ दिनों के लिए बीमार हो जाए, उसके साथ कोई दुर्घटना हो जाए तो उसके समक्ष भूखों मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता। क्योंकि वह अपना रिक्शा अपने बेटे को भी चलाने को नहीं दे सकता ताकि उनके घर और दवा का खर्च निकल सके।

इसी प्रकार, बाजार में फुटपाथ पर रेहड़ी लगाकर रोजी रोटी कमाने वाला एक दुकानदार चाहकर भी अपना व्यवसाय बढ़ा नहीं सकता। वह उतना ही सामान रखता है जितना कमेटी के औचक निरीक्षण के दौरान वह लेकर भाग सके। यदि वह ऐसा करने में असफल रहता है तो कमेटी वाले उसका सामान उठा ले जाते हैं। अब सोचिए, क्या कमेटी के निरीक्षण अथवा सामान उठा ले जाने से उस इलाके में फुटपाथ पर दुकान लगाने वाले अगली बार वहां नहीं मिलते। नहीं, कुछ ही देर बाद वहां का माहौल फिर वैसा ही हो जाता है जैसा कुछ समय पहले था। यहां तक कि दुकानदारों से सुविधा शुल्क लेकर म्युनिसिपालिटी के कर्मचारी ही कमेटी के निरीक्षण पर जाने की सूचना दुकानदारों को पहुंचा देते हैं। जिससे समय रहते ही सारे उस स्थान से हट जाते हैं। स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट 2014 के बाद से रेहड़ी पटरी व्यवसायियों की आर्थिक अवस्था में बदलाव आया है लेकिन राज्य सरकारों द्वारा ढीला ढाला रवैया अपनाने के कारण बड़ी तादात में पटरी व्यवसायी अब भी शोषण का शिकार हैं।

यदि छोटे एवं मध्यम रोजगार के क्षेत्र को भी इंस्पेक्टर राज से मुक्ति दिलाई जा सके और सुधार के कदम उठाए जाएं तो गरीबों की आय में भी अपेक्षा के अनुरूप वृद्धि संभव है।

लेखक के बारे में

अविनाश चंद्र

अविनाश चंद्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के सीनियर फेलो हैं। वे पब्लिक पॉलिसी मामलों के विशेषज्ञ हैं और उदारवादी वेब पोर्टल आजादी.मी के संयोजक हैं।

डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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