सिर्फ अच्छी नीयत नहीं, अच्छी नीति से बरसेगी लक्ष्मी की कृपा

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भारत में बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाने वाले दीपावली के त्यौहार को मनाने के मुख्यतः दो कारण हैं। पहला कारण, पौराणिक मान्यताओं के अनुसार लंकापति रावण का संहार कर अयोध्या के राजा राम, भाई लक्ष्मण व पत्नी सीता के साथ अपने राज्य वापस लौटे थे। पुष्पक विमान से रात के अंधेरे में अयोध्या पहुंचे राम के स्वागत के लिए अयोध्यावासियों ने घर के बाहर दिए जलाए और रौशनी कर विमान को यथास्थान उतरने की राह दिखाई। कालांतर में यह उस घटना को याद करने और खुशी मनाने की परंपरा के तौर पर प्रचलित हुआ। दूसरा कारण, धन, सुख और समृद्धि की देवी लक्ष्मी, गणेश और कुबेर की पूजा अर्चना कर धनार्जन व लाभ की कामना करना है। मजे की बात यह है कि आज दीपावली के पहले कारण की चर्चा बहुत कम होती है। नन्हें मुन्ने स्कूली छात्रों सहित किसी से भी यदि दीपावली के पर्व को मनाने का कारण पूछो तो वह धन, सुख और समृद्धि के लिए लक्ष्मी, गणेश और कुबेर की पूजा अर्चना को ही इसका कारण बताता है। हालांकि भगवान राम के अयोध्या लौटने की घटना वाले प्रसंग की चर्चा करने पर वे इससे अनभिज्ञता नहीं जताते। लेकिन पूजा सभी लक्ष्मी की ही करते हैं भले ही मुहूर्त देर रात ही क्यों न हो?

लोगों का ऐसा व्यवहार यह साबित करने के लिए काफी है कि धन का लोगों के जीवन में कितना महत्व है। अन्य त्यौहार जहां, साल दर साल अपना महत्व खोते जा रहें हैं वहीं दीपावली का त्यौहार प्रतिवर्ष भव्यता का नया इतिहास रचता जा रहा है। आखिर, ऐसा क्यों?  दीपोत्सव की खुमारी के बीच यही सही समय है कि हम उन छिपे संदेशों को जाने ताकि हमारी कामना रूपी दिए की रौशनी सदा प्रज्वलित रहें और कभी मंद न पड़े। हालांकि इसके साथ ही एक सवाल भी सदैव अस्तित्व में रहता है कि क्या देश में केवल अमीरों का दीया ही लगातार जल रहा है? क्या कारण हैं कि गरीब और गरीब होता जा रहा है जबकि अमीर और ज्यादा अमीर?

सरकारें चाहें जो कहें लेकिन सच्चाई यही है कि अधिकतम लाभ उसकी तबके के हिस्से में आ रही है जो तबका पहले से ही अमीर है। इसे विरोधाभास ही कहेंगे कि एक तरफ जहां भारत में साल दर साल धनकुबेरों की संख्या में खूब वृद्धि हो रही है वहीं भूख, कुपोषण के कारण होने वाली मौतों की संख्या के मामले में देश की स्थिति अपने गरीब पड़ोसी देशों से भी गई गुजरी है। कर्ज के तले दबे किसानों द्वारा हर साल सैकड़ों की तादात में मौत को गले लगाने की घटना भी वैश्विक स्तर पर शर्मिंदगी का कारण बन रही है। लेकिन ऐसा हो क्यों रहा है जबकि सभी सरकारें गरीबों और किसानों का हितैषी होने का दंभ भरती हैं?

यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि भारत जैसे देश में जहां लक्ष्मी की साक्षात पूजा होती है वहां हम धनार्जन को लेकर पाखंडी रवैय्या अपनाते हैं। दरअसल, हम दोहरे चरित्र को जीते हैं। हम दिल से दौलत तो कमाना चाहते हैं लेकिन सिद्धांतों की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। जहां तक दीपावली के साल दर साल भव्य होते जाने का प्रश्न है तो इसका सीधा सा उत्तर यह है कि जहां अन्य पर्व महज एक पुरानी परंपरा को जारी रखने का माध्यम बन चुके हैं वहीं दीपावली प्रगति और उन्नति के त्यौहार के रूप में परिवर्तित हो गया है। हालांकि सभी त्यौहारों का अपनी अलग महत्व है। वैदिक काल में भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि पुरूषार्थों में अर्थ को काफी महत्व दिया गया। वैसे, अब यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान में अर्थ का महत्व सबसे अधिक हो गया है और बाकी पुरुषार्थ गौड़ हो गये हैं।

अब दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न! आखिर वे क्या कारण हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में बाजार और उसमें सुधार के प्रयासों का सबसे ज्यादा लाभ अमीर को ही मिल रहा है? क्यों अमीर और गरीब बीच खाई कम होने के बजाए बढ़ती जा रही है? और क्यों अमीर, ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब होता जा रहा है?

इतने सारे क्यों का जवाब सिर्फ एक है, और वह है पब्लिक पॉलिसी अर्थात लोकनीतियों का खामियों से युक्त होना। विडंबना है कि इस देश में अब भी सरकारी फैसलों का अच्छी नीति की बजाए अच्छी नियत से युक्त होना ज्यादा जरूरी माना जाता है। इस बात को हम एक उदाहरण की सहायता से समझ सकते हैं। तरक्की के लिए आवश्यक है कि किसी व्यवसाय में लगा व्यक्ति लगातार अपने व्यवसाय का विस्तार करता रहे। इसके लिए वह अपने लाभ का कुछ हिस्सा बचाकर अथवा कहीं से कर्ज आदि लेकर व्यवसाय में निवेश कर उसमें विस्तार कर सकता है। बड़े उद्योगों के लिए यह प्रक्रिया बड़ी स्वाभाविक है और स्वयं सरकार अथवा बैंकों द्वारा उसे कर्ज उपलब्ध कराया जाता है। जबकि गरीब लोगों के लिए रास्ते इतने मुश्किल बना दिये जाते हैं कि वे प्रगति के रास्ते से बिल्कुल कट जाते है। उदाहरण के लिए कुछ वर्ष पूर्व तक दिल्ली की सड़कों पर रिक्शों की अधिकतम सीमा तय थी। 2009 के आंकड़ों के मुताबिक यहां मात्र 99 हजार रिक्शों के चलने की अनुमति थी। इसके लिए बाकायदा उन्हें एमसीडी द्वारा लाइसेंस जारी किए जाते थे। कुछ ठेकेदारों ने इस व्यवस्था का फायदा उठाया और विभाग में मिलीभगत से दर्जनों लाइसेंस अपने नाम से जारी कराने शुरु कर दिए। बाद में इन लाइसेंसों के आधार पर गरीबों से उन्हें चलवाने लगे और इसके ऐवज में प्रति शिफ्ट 25-40 रूपए तक वसूलने लगे। इसके बाद सरकार ने प्रति व्यक्ति एक लाइसेंस जारी करने का नियम बना दिया। लाइसेंस को चालक के नाम से ही जारी किए जाने का भी प्रावधान किया गया। अर्थात लाइसेंस उसे ही मिलेगा जो स्वयं रिक्शे का मालिक होगा। सुनने में तो यह नीति काफी जन-कल्याणकारी प्रतीत होती है लेकिन इसके दुष्प्रभाव देखिए। दिल्ली की सड़कों पर उस समय भी 3 से 5 लाख रिक्शे चलते थे। मतलब यह कि जितने लाइसेंस दिए गए उससे पांच सौ फीसद ज्यादा।

अब ये रिक्शे चल कैसे रहे थे? सीधी बात है अधिकारियों की मिलीभगत और रिश्वतखोरी के बल पर। एक सर्वेक्षण के मुताबिक पांच लाख रिक्शा चालकों से एमसीडी अधिकारियों द्वारा प्रतिमाह कम से कम सौ रूपए वसूला जाता था। इस प्रकार, यह छोटी सी राशि कुल मिलाकर पांच करोड़ रूपए प्रतिमाह तक पहुंच जाती थी। सोंचने वाली बात है कि रिश्वत लेने के बाद जब रिक्शे चल रहे थें और उनसे किसी को परेशानी नहीं थी तो फिर लाइसेंस लेकर चलने से कौन सी यातायात व्यवस्था बिगड़ जाती? मजे की बात यह है कि रिक्शा चालक भी सौ रूपए प्रतिमाह देने को खुशी खुशी तैयार थे है यदि उन्हें एमसीडी कर्मियों और पुलिसवालों द्वारा परेशान न किए जाने का आश्वासन मिलता। अब यह भी सोंचने वाली बात है कि यदि इन्हें लाइसेंस जारी कर उनसे पांच करोड़ प्रतिमाह और प्रतिवर्ष 60 करोड़ रूपए वसूलें जाए तो रिक्शा चालकों के लिए अलग लेन बनाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन भी आराम से किया जा सकेगा। इससे लोगों को आसपास के इलाकों में आने जाने के लिए वाहन प्रयोग करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। प्रदूषण और पार्किंग की समस्या का भी समाधान।

अब इसका दूसरा पहलू देखिए, चूंकि एक व्यक्ति को एक ही लाइसेंस मिलने की बाध्यता है और लाइसेंस उसे ही मिलेगा जो स्वयं रिक्शे का मालिक और चालक हो। अब यदि एक रिक्शा चालक कुछ पैसा जमाकर या कहीं से उधार आदि लेकर एक और रिक्शा खरीदना चाहे तो वह ऐसा नहीं कर सकता। क्योंकि उसे दूसरा लाइसेंस नहीं मिलेगा। यदि मिला भी तो रिक्शा चलाने की अनुमति सिर्फ उसे ही होगी और वह किसी और को रिक्शा चलाने के लिए देकर कुछ अतिरिक्त कमाई नहीं कर सकता। जबकि एक व्यवसायी एक दुकान से दूसरी दुकान और फिर तीसरी दुकान खोलने के लिए स्वतंत्र है। अब यदि रिक्शा चालक कुछ दिनों के लिए बीमार हो जाए, उसके साथ कोई दुर्घटना हो जाए तो उसके समक्ष भूखों मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता। क्योंकि वह अपना रिक्शा अपने बेटे को भी चलाने को नहीं दे सकता ताकि उनके घर और दवा का खर्च निकल सके।

इसी प्रकार, बाजार में फुटपाथ पर रेहड़ी लगाकर रोजी रोटी कमाने वाला एक दुकानदार चाहकर भी अपना व्यवसाय बढ़ा नहीं सकता। वह उतना ही सामान रखता है जितना कमेटी के औचक निरीक्षण के दौरान वह लेकर भाग सके। यदि वह ऐसा करने में असफल रहता है तो कमेटी वाले उसका सामान उठा ले जाते हैं। अब सोचिए, क्या कमेटी के निरीक्षण अथवा सामान उठा ले जाने से उस इलाके में फुटपाथ पर दुकान लगाने वाले अगली बार वहां नहीं मिलते। नहीं, कुछ ही देर बाद वहां का माहौल फिर वैसा ही हो जाता है जैसा कुछ समय पहले था। यहां तक कि दुकानदारों से सुविधा शुल्क लेकर म्यून्सिपालिटी के कर्मचारी ही कमेटी के निरीक्षण पर जाने की सूचना दुकानदारों को पहुंचा देते हैं। जिससे समय रहते ही सारे उस स्थान से हट जाते हैं।

क्या ही अच्छा होता कि सरकार ऐसी पॉलिसी बनाती जिससे प्रक्रिया में पारदर्शिता आती और किसी की जवाबदेही तय होती, रिश्वत खोरी पर लगाम लगता और गरीबों से मिला पैसा सरकारी खाते में जाता जिससे दुकानदारों की भलाई और उन्हें स्थायी करने में मदद मिलती। संगठित और वैध रोजगार घोषित होने पर वे भी बैंकिंग सहित उन सभी सुविधाओं का लाभ उठा पाते और अपने व्यवसाय को बढ़ा पाते जैसा कि अमीर और पैसे वाले लोगों कर पाते हैं।

- आजादी.मी

लेखक के बारे में

अविनाश चंद्र

अविनाश चंद्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के सीनियर फेलो हैं। वे पब्लिक पॉलिसी मामलों के विशेषज्ञ हैं और उदारवादी वेब पोर्टल आजादी.मी के संयोजक हैं।

डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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