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भारतीय स्कूलों की वित्तीय व्यवस्थाः किस प्रकार बजट प्राइवेट स्कूलों का नुकसान हो रहा है

स्वाति राव, 7 मई 2021

सभी तक शिक्षा पहुंचाने और स्कूलों में दाखिला सुनिश्चित कराने के क्षेत्र में भारत ने महत्वपूर्ण प्रगति तो की है लेकिन सीखने के संकट का अबतक कोई समाधान नहीं ढूंढा जा सका है। महामारी के कारण बड़ी तादाद में स्कूल बंद हुए हैं और इस कारण स्कूली शिक्षा पर दूरगामी दुष्परिणाम पड़ने की संभावना है। आज जरूरत शिक्षा नीति के शिक्षा के प्राथमिक उद्देश्यों पर ध्यान केंद्रीत करने और सभी छात्र सीखना जारी रखें यह सुनिश्चित कराने की है, चाहे छात्र सरकारी स्कूलों में नामांकित हों अथवा निजी स्कूलों में। 

निजी स्कूलों में पढ़ने वाले 70 प्रतिशत छात्र 200,000 से 400,000 बजट प्राइवेट स्कूलों (बीपीएस) में नामांकित हैं। अभिभावकों के बीच बीपीएस के लिए बढ़ती भारी मांग यह दर्शाता है कि इस क्षेत्र में प्रगति की अपार संभावनाएं हैं। दुर्भाग्य से सस्ती और किफायती स्कूली शिक्षा वाली यह व्यवस्था महामारी के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। स्कूलों के बंद पड़े रहने और अभिभावकों के द्वारा फीस जमा नहीं कराए जाने के कारण बीपीएस मालिकों का बहुत नुकसान हुआ है। राज्य स्तर पर लगाए गए विनियमनों के कारण स्कूलों पर वित्तीय संकट और अधिक गहरा गया है। तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र राज्यों में फीस संकलन करने पर रोक है जबकि हरियाणा, तेलंगाना, दिल्ली और मध्य प्रदेश में केवल ट्यूशन फीस लेने की ही अनुमति है।  

भारत में, निजी स्कूलों वाली शिक्षा व्यवस्था अत्यधिक विनियमित है। केंद्र एवं राज्य दोनों सरकारों के द्वारा स्कूलों को लाइसेंस प्रदान करने, मान्यता प्रदान करने और उनका निरीक्षण करने की प्रक्रिया को विनियमित किया जाता है। इसके के साथ ही साथ स्कूलों के द्वारा वित्त एकत्र करने की राह में भी तमाम बाधाएं खड़ी की गई हैं। अत्यंत विखंडित और प्रतिस्पर्धी माहौल में स्कूलों के संचालन के लिए बीपीएस मालिकों को निवेश और प्रवेश से संबंधित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता पड़ती है। कोष के स्रोतों में लोकोपकार के लिए दिये जाने वाले धन, उद्यम पूंजी कोष, सामाजिक निवेशकों और बैंक व वित्त प्रदाताओं से मिलने वाले ऋण शामिल हैं। हालांकि लोकोपकार के मद में प्रदान किया जाने वाला धन काफी कम स्कूलों को ही प्राप्त होता है। जबकि प्रतिकूल नियमन युक्त माहौल बैंकिंग संस्थानों और निवेशकों के मन में स्कूलों में निवेश करने के प्रति शंका पैदा करता है। 

बीपीएस मालिकों के द्वारा पूंजी हासिल करने की राह में बड़ी चुनौतियां हैं। विधिक और विनियमन युक्त बाधाएं, विशेषकर आरटीई की धारा 15 जो यह कहती है कि, ‘स्कूलों का संचालन किसी व्यक्ति, समूह या व्यक्तियों के संघ अथवा किसी अन्य को लाभ प्रदान करने के लिए नहीं किया जाता है’ ने बीपीएस को ऋण हासिल करने की सुविधा प्राप्त करने से रोक रखा है। बैंक गैर लाभकारी संस्थाओं को ऋण देने से इनकार करते हैं। इसके अलावा, संपार्श्विक (कोलेट्रल) की अनुपलब्धता और जटिल दस्तावेजी प्रक्रिया भी बीपीएस मालिकों को बैंक से ऋण प्राप्त करने से रोकते हैं। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां जैसे कि इंडियन स्कूल फाइनेंस कंपनी और वर्थना इन किफायती निजी स्कूलों को मध्यम अवधि के ऋण उपलब्ध कराते हैं। ऋण प्राप्त करने की आसान प्रक्रिया के बावजूद ब्याज की ऊंची दर (20 प्रतिशत से अधिक) और एडुप्रेन्योर्स को ऐसी सुविधाओं की उपलब्धता से संबंधित जानकारी न होने के कारण सीमित ऋण ही जारी हो पाते हैं।  

हजारों छोटे निजी स्कूल अस्तित्व में हैं जिनका संचालन व्यक्तिगत स्तर पर किया जाता है लेकिन ये बीपीएस विखंडित हैं और बड़े भौगोलिक क्षेत्र में फैले हुए हैं। शुरुआती दौर में होने वाले उच्च निवेश और निश्चित लागत के कारण स्कूलों को संचालन लागत के 20 प्रतिशत मुनाफे के स्तर तक पहुंचने में वर्षों लग जाते हैं जिसके कारण निवेशकों को इन उद्यमों में निवेश करने का कोई वित्तीय फायदा नजर नहीं आता है। इसके अलावा सफलतापूर्वक प्रगति हासिल करने के लिए किसी निश्चित प्रारूप की अनुपलब्धता भी लाभ की मात्रा को सीमित करती है। निम्न आय वर्ग वाले अभिभावकों के द्वारा प्रायः फीस जमा कराने में होने वाली देरी, फीस की राशि को लेकर मोल भाव किया जाना और प्रायः स्कूलों को बदल दिये जाने के कारण भी स्कूल संचालकों को वित्त प्रबंधन करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। निवेशकों का दृष्टिकोण यह कहता है कि वैकल्पिक निवेश के माध्यमों की तुलना में अधिक लाभ हासिल करने के लिए एक व्यावसायिक प्रारूप का संगठित और व्यवस्थित प्रणाली से युक्त होना आवश्यक है।

गैर लाभकारी वृत्ति होने का तमगा बीपीएस के लिए ऋण सुविधा हासिल करने के कार्य को और अधिक चुनौतीपूर्ण बनाता है। लेकिन वर्तमान के मॉडल और प्रांतीय आरटीई कानून लाभ अर्जित करने वाले स्कूलों को मान्यता प्राप्त करने के लिए अयोग्य बनाते हैं। कई राज्यों के आरटीई कानूनों के तहत केवल सोसायटियों, ट्रस्टों और सेक्शन 8 के तहत पंजीकृत कंपनियों को ही स्कूल चलाने की अनुमति है। निजी स्कूलों के अनेक संघ जैसे निसा, फिक्की अराईज़ इत्यादि और शिक्षाविदों के लॉबी समूह लंबे समय से इन प्रतिबंधात्मक नीतिगत प्रावधानों में सुधार की मांग कर रहे हैं। अन्य राज्यों को हरियाणा, महाराष्ट्र और यूपी आरटीई कानूनों से प्रेरणा लेनी चाहिए जो कि कंपनियों को मान्यता प्राप्त स्कूलों के संचालन की अनुमति देते हैं। निवेशक और कोष प्रदाता बीपीएस को निवेश के विकल्प के तौर पर देखें इसके लिए आवश्यक है कि किफायती स्कूली शिक्षा व्यवस्था लाभदायक बने। 

जागरूकता की कमी और बैंकिंग प्रणाली में भरोसा न होने के कारण बीपीएस मालिक बैंकों और एनबीएफसी से ऋण लेने के प्रति हतोत्साहित होते हैं। जटिल बैंकिंग प्रक्रियाओं और उच्च संपार्श्विक (कोलेट्रल) की जरूरत भी बाधक के रूप में कार्य करते हैं। सरकार को पहल करते हुए ऐसे समूहों के बीच वित्तीय जागरुकता और साक्षरता बढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिए, बैंकों और एनबीएफसी को आसान और निर्बाध ऋण प्रदान करने के लिए दस्तावेजी प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और बीपीएस को कोलेट्रल रहित ऋण हासिल करने की अनुमति प्रदान की जानी चाहिए। 

निवेश अथवा ऋण के माध्यम से वित्त हासिल करने का कार्य बीपीएस मालिकों के लिए लगातार दुष्कर बना हुआ है। आधारभूत संरचना और स्थापना में लगने वाली उच्च लागत, अनुपालन (कंप्लायंस) लागत और बाधित नगदी प्रवाह के कारण ऋण प्रदाता बीपीएस को निवेश के अच्छे विकल्प के तौर पर नहीं देखते हैं। इस कारण ये स्कूल विस्तार अथवा गुणवत्ता में सुधार के लिए बड़े निवेश करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं जिसके कारण उनकी मापनीयता और सामर्थ्य प्रभावित होती है। इससे एक चक्र का निर्माण होता है जहां शिक्षा, सीखने की प्रक्रिया और छात्र सभी का नुकसान होता है।