जन्मदिन विशेषः मीनू मसानी और एक मुक्त अर्थव्यवस्था

एक मुक्त अर्थव्यवस्था का मतलब है सरकार की भूमिका काफी हद तक सीमित ही होगी। सामाजिक नियंत्रण भी बहुत ज्यादा सीमित रखना होगा। नियंत्रण की सोच का आधार ही यह है कि वह उसी वक्त हस्तक्षेप करे जब लोग कोई गलत कदम उठाएं। आप किसी व्यक्ति को चोरी से रोकते हो, किसी दूसरे को पीटने से रोकते हो, किसी को ठगने से रोकते हो, मालिक को नौकर को ठगने सो रोकते हो-यह जायज है। लेकिन आप किसी व्यक्ति को उसका काम करने से नहीं रोकते। इसलिए नियंत्रण तो पुलिसी उपाय है ताकि किसी को वह काम करने से रोका जाए जो उसे नहीं करना चाहिए। सरकार को मां की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए कि मैरी से यह कहे कि जाकर देखो कि जॉन क्या कर रहा है और उसे रोको, बल्कि होना यह चाहिए कि जॉन को तभी रोका जाए जब वह ऐसा काम कर रहा हो जो उसे नहीं करना चाहिए।
मुक्त समाज की दूसरी विशेषता यह है कि उपभोक्ता ही राजा है। हर काम उद्योगपति, व्यापारी या फैक्टरी के श्रमिक नहीं बल्कि उपभोक्ता की जरुरतों को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए। उपभोक्ता के लिए जो आम आदमी है। हम सभी उपभोग करते हैं। भारत में आज एक भी ऐसा इंसान नहीं है जो किसी न किसी वस्तु का उपभोग न करता हो। ऐसा नहीं करता तो वह मर चुका होता। हम उपभोग करते हैं, आप और आपके बच्चे भी करते हैं। आखिर उपभोक्ता ही राजा है का क्या मायने है? इसका मतलब है कि उपभोक्ता ही उत्पादन स्वरूप तय करेगा। उपभोक्ता को ही उद्योगपति को बताना चाहिए कि वह किस चीज का उत्पादन करे और किस चीज का नहीं। उपभोक्ता ऐसा अपनी क्रय शक्ति से कर सकता है, उसकी जेब में मौजूद जरा से धन से। उद्योगपति या व्यापारी केवल वही माल बनाते हैं जो उनकी राय में लाभ देगा। दूसरे शब्दों में, किसी माल की मांग है और आप उसका उत्पादन करते हैं। अगर मांग नहीं है तो आप उस माल का उत्पादन करके खुद को बेवकूफ ही साबित करेंगे, क्योंकि कोई उसे खरीदेगा नहीं और आपको भारी नुकसान होगा।
मुक्त देश में इस तरह से छोटा सा उपभोक्ता भी उत्पादन का स्वरूप तय कर सकता है। हम जब भी सामान खरीदने जाते हैं तो अपना मतदान करके ही आते हैं। जिस तरह से आप घोड़े पर बैठने के लिए टिकट खरीदते हैं, ठीक वैसे ही दुकान में जाकर कहते हैं मुझे हमाम दो, लिरिल दो या इसी तरह कुछ और। आप साबुन के उस ब्रांड विशेष के पक्ष में और दूसरे ब्रांड के खिलाफ मत देते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि आप कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी को मत देते हैं या फिर किसी एक घोड़े पर दांव लगाते हैं, दूसरे पर नहीं। साबुन, इत्र, ब्रेड, बिस्कुट, केक या जो भी सामान आप खरीदते हैं उसका आर्थिक महत्व देखा जाता है। इसके बाद व्यापारी और उद्योगपति जान लेते हैं कि क्या लोकप्रिय है और लोग किसे प्राथमिकता दे रहे हैं। और वे मांग के ही लिहाज से अपने उत्पादन को बदल देते हैं। यही उपभोक्ता के राजा होने का मतलब है। इसी के चलते इतिहास में सबसे ज्यादा समृद्धि, जीवनस्तर और मौकों, हैसियत में समानता हासिल की गई है। यह एक विरोधाभास है।
जिन देशों में सबसे ज्यादा समानता है-कहीं भी दोषहीन समानता नहीं है और हो भी नहीं सकती-लेकिन जहां पर मौकों और हैसियत में समानता है तो ऐसा केवल पूंजीवादी देशों में ही है। वह कौनसा देश है जहां पर कर्मचारी अपने बॉस को नाम लेकर पुकारते हैं? अमेरिकी कर्मचारी कभी अपने बॉस को श्रीमान या ऐसे किसी संबोधन से नहीं बुलाता, वे उसे उसके पहले नाम जैसे टॉम या जॉन कहकर बुलाते हैं। यह संयुक्त राज्य अमेरिका है। यूरोप के लोग इसका दोष परवरिश में कमी को देते हैं क्योंकि वे अब भी वर्गवाद के जाल में उलझे पड़े हैं। इस तरह से आप यह चौंकाने वाला घटनाक्रम देखते हैं, जिसमें आपको सबसे ज्यादा समृद्धि तो मिलती ही है, सबसे ज्यादा समानता भी देखने को मिलती है, जो कि आमतौर पर समाजवाद का लक्ष्य माना जाता है, केवल तथाकथित पूंजीवादी या मेरे शब्दों में उदारवादी देशों में। सिंगापुर के बेहद बुद्धिमान प्रधानमंत्री ली कुआन यू, जो कि एक समाजवादी हैं, कुछ साल पहले भारतीय समाजवादियों से मिलने मुंबई आए थे और उन्होंने एक सवाल पूछा था। उन्होंने पूछा, ‘यह पूछना सुसंगत होगा कि आखिर मुक्त अर्थव्यवस्था वाले जापान, हांगकांग, फार्मोसा, थाइलैंड और मलेशिया जैसे एशियाई देशों ने कामयाबी हासिल कर ली, जबकि समाजवाद की राह पकड़ने वाले देश संतोषजनक परिणाम क्यों नहीं दे सके?’
दिल्ली में अमेरिकी राजदूत रह चुके और नेहरु के वक्त में पक्के समाजवादी योजनाकार प्रोफेसर केनेथ गालब्रेथ ने एक किताब ‘द न्यू इंडस्ट्रियल स्टेट’ लिखी थी। उन्होंने अपनी किताब में ये लिखाः “भारत और श्रीलंका के अलावा कुछ नये अफ्रीकी देशों में, सार्वजनिक उपक्रमों को ब्रिटेन की तरह स्वायत्तता नहीं दी गई है। यहां पर लोकतांत्रिक समाजवादी परमाधिकार पूरी तरह से थोप दिया गया है। खासतौर पर भारत को उपनिवेशवादी प्रशासन विरासत में मिला है, यहां आधिकारिक सार्वभौमिकता का भ्रम मौजूद है जो कई बेहद तकनीकी फैसलों को भी प्रभावित करता है...स्वायत्तता नहीं दिए जाने के कारण इन देशों में सार्वजनिक उपक्रमों के कामकाज में अदक्षता बढ़ती ही जा रही है। भारत और श्रीलंका में तो तमाम सार्वजनिक उपक्रम घाटे में ही चल रहे हैं। अन्य नये देशों में भी ऐसे ही हालात हैं। एक परिणाम यह हुआ है कि कई सारे समाजवादी इस सोच के हो गए हैं कि सार्वजनिक निगम का स्वभाव ही, विल्सन सरकार के एक मंत्री के शब्दों में, गैरजिम्मेदार होकर जनता या लोकतांत्रिक नियंत्रण के प्रति जवाबदेह नहीं होते।”
ऐसा होने का कारण बहुत आसान सा है। राजनीतिक तंत्र हमारे अपने शरीर की तरह है। इसमें समाज द्वारा हमारे बंदर से इंसान बनने के बीच के पिछले कई हजार सालों में विकसित अंग हैं। जिस तरह से इंसान का समाज विकसित होता है वैसी ही संस्थाएं भी बनती जाती हैं। जॉइंट स्टॉक कंपनी को कारोबार करने के लिए पिछले 200 साल से तैयार किया गया है। सरकार या शासन को नियम और व्यवस्था बनाने के लिए तैयार किया गया है। हमारा शरीर भी वैसा ही है। हम नाक से सूंघते हैं, मुंह से खाते हैं, कान से सुनते हैं, फेंफड़ों से सांस लेते हैं, अमाशय खाना पचाता है आदि आदि। अब क्या हो अगर हम अपने अंगों को उनके मूल काम की बजाय दूसरा काम करने को मजबूर करें। अगर हम अमाशय से सांस लेने की कोशिश करें और फेंफड़ों से खाना पचाने या कान से सूंघने और मुंह से सुनने की कोशिश करें? क्या होगा? यह बेकार ही होगा। ठीक यही होता है जब हम समाज के विभिन्न अंगों के दुरुपयोग की कोशिश करते हैं। समाज और सभ्यताओं ने सरकारों का गठन देश पर बाहरी हमलों, एक-दूसरों पर हमलों, न्याय के लिए किया था। दूसरे शब्दों में सरकार का काम कानून और व्यवस्था की स्थिति बनाए रखना है, लोगों को न्याय देना, लोगों का संरक्षण, देश को बाहरी हमलों से बचाना है। सरकार के मूलभूत काम बस इतने ही हैं। जब सरकार फैक्टरी चलाने की कोशिश करती है, पेनिसिलिन, इस्पात या कुछ और बनाने की कोशिश करती है तो वह नाकाम हो जाती है क्योंकि सरकार लाभ कमाने या सामान के उत्पादन के लिए नहीं बनाई गई हैं। सरकारों को किसी उत्पादन के लिए नहीं बनाया गया है। सरकार को व्यवस्था बनाए रखने का काम करना चाहिए, आपको उत्पादन करने का मौका देना चाहिए। इसलिए समाजवादी या साम्यवादी सरकारें सामाजिक विकास के मूलभूत कानून का विकृत रुप हैं। इसलिए इनका नाकाम होना लाजिमी है। इस तरह से इसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हमें इस बंजर रास्ते को छोड़कर उदारवाद की राह पकड़नी चाहिए।
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