ओला-ऊबर मॉडल और काॅंट्रैक्ट फार्मिंग
हरियाणा और पंजाब के किसानों के द्वारा नए कृषि सुधार कानूनों का विरोध जारी है। यह वैसी ही स्थिति है जैसे कि 1991 में आर्थिक सुधारों के प्रयासों के कारण सरकार को व्यापक स्तर पर विरोध झेलने को मजबूर होना पड़ा था। यह और बात है कि विदेशी व्यापार (सीमित स्तर पर) के लिए दरवाजे खोलने के बाद हुए लाभ ने विरोधियों को भी चुप करा दिया। मुक्त व्यापार के फायदों को देखते हुए अधिक से अधिक सेक्टरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने और बाजार आधारित प्रतिस्पर्धा से जोड़ने की मांग होने लगी। देश के सबसे बड़े निजी क्षेत्र कृषि को भी बाजार से जोड़ने और किसानों को उनकी उपज और मेहनत का फायदा दिलाने की बात लंबे समय से की जा रही थी। सरकारी नियंत्रण के कारण कृषि किसानों के लिए घाटे का सौदा बन कर रह गया था। इस क्षेत्र में अत्याधुनिक तकनीक आदि का विस्तार न होने का कारण भी बाजार और निजी निवेशकों को इससे दूर रखना था।
कृषि क्षेत्र के नए सुधारात्मक प्रयासों में सबसे अधिक विरोध प्राइवेट मंडियों की स्थापना और कॉंट्रैक्ट फार्मिंग का हो रहा है। नए कानूनों का विरोध करने वाले किसानों को कैब सेवा प्रदाता ओला-उबर कंपनियों के मॉडल से सीख लेनी चाहिए। मोबाइल ऐप आधारित कैब सेवा प्रदाता कंपनियों के आने से कार रखने वालों, कार के साथ ड्राइविंग स्किल रखने वालों और सिर्फ ड्राइविंग स्किल रखने वालों सभी का फायदा हुआ। कार मालिकों के द्वारा अपनी कार ओला-उबर से अटैच कर बैठे बिठाए मुनाफा कमाने का अवसर प्राप्त हुआ वहीं ड्राइवरों के भी उक्त कंपनियों से जुड़कर कमाई करने का मौका मिला। बड़ी तादात में ऐसे लोग भी हैं जो स्वयं की कार को खुद ही चलाते हैं और लाभ अर्जित करते हैं। मजे की बात ये है कि यह काम कानूनी होने के कारण किसी को भी अपनी कार जब्त हो जाने या सिर्फ ड्राइवर बन कर रह जाने का भय नहीं है। इसके साथ काॅंट्रैक्ट से बाहर निकलने की शर्ते भी पूर्व निर्धारित होती हैं जिसका मतलब ये है कि यदि शर्तें मंजूर नहीं तो आप काॅंट्रैक्ट करने से इंकार कर सकते हैं या फिर कभी भी कानून सम्मत तरीके से उस काॅंट्रैक्ट से बाहर निकल सकते हैं।
इस मॉडल का कृषि के क्षेत्र में लागू होने पर जमीन होने के बावजूद किसानी न करने वाले, भूमिहीन किसान और अपनी भूमि पर खेती करने वाले सभी प्रकार के किसानों का फायदा हो सकेगा। जहां भू स्वामी अपनी जमीन कंपनी को लीज पर दे सकेंगे वहीं भूमिहीन वहां मजदूरी कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त यदि किसान चाहें तो अपनी ही जमीन खुद भी कृषि कार्य कर सकेंगे। इससे सबसे अधिक फायदा छोटे और मध्यम किसानों का ही है जो अबतक अपनी थोड़ी बहुत उपज के कारण मंडी वाली व्यवस्था से दूर रहे हैं। यदि किसानों को काॅंट्रैक्ट के नियमों एवं शर्तों से ऐतराज है तो वे इसे अस्वीकार कर सकते हैं और पूर्ववत अपना काम जारी रख सकते हैं। यदि काॅंट्रैक्ट के बीच में उन्हें कहीं भी असहजता महसूस होती है तो वे कानून सम्मत तरीके से उससे बाहर निकल सकते हैं।
नए कानूनों का विरोध करने वाले कृषि विशेषज्ञों व किसान नेताओं को पूर्व सोवियत संघ की परिणति को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए। उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि जब साम्यवादी सोवियत संघ तेजी से उभर रहा था तो पूरी दुनिया उससे अभिभूत हो रही थी। उन्हें यह विश्वास हो चला था कि यही मॉडल भविष्य में कारगर साबित होने वाला है। हालांकि उदारवादी ऑस्ट्रियन अर्थशास्त्री लुडविग वॉन मिजीस ने उसी समय भविष्यवाणी की थी कि सोवियत संघ और उसका मॉडल दोनों ढह जाएंगे। बाद में मिज़ीस सही साबित हुए। दरअसल सोवियत मॉडल बाजार की कीमतों को काम नहीं करने देता था। कीमतें या तो कृत्रिम तौर पर कम रखी जाती थी या अधिक। इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अर्थव्यवस्था में कीमतें इंडिकेटर के रूप में कार्य करती है। उन्हें कृत्रिम तरीके से तय करना संसाधन आवंटन पर विपरीत प्रभाव डालता है। इससे पूरा तंत्र अक्षम और कमजोर होता है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण चंद फसलों की अत्यधिक खेती से पंजाब आज कृषि उत्पादकता में गिरावट का शिकार हो गया है। इस गिरावट को रोकने के लिए ही वहां बाजार मूल्य से कम पर उपलब्ध रासायनिक उर्वरक के अत्यधिक उपयोग के कारण पूरा इलाका कैंसर बेल्ट भी बनता जा रहा है। ऐसे में आज जरूरत है कि सभी किसान संगठन, सरकार और सभी पार्टियां साथ मिलकर कृषि सुधार कानूनों को आत्मसात करें और किसानों को समृद्ध होने की राह के व्यवधानों को दूर करने की कोशिश करें न कि और रोड़े अटकाएं।
डिस्क्लेमर:
ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।
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